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________________ उपदेशतरंगिणी. अहिंसा सर्वजीवानां, सर्वज्ञैः परित्नाषितम् ॥ इदं हि मूलं धर्मस्य, शेषस्तस्यैव विस्तरः ॥३॥ अर्थ- श्री सर्वज्ञ प्रनुए एम कडं ले के, सर्व जीवोनी हिंसा नहीं करवी, ए धर्मनुं मूल , अने बाकीनी धर्मक्रिया तो ते अहिंसानोज विस्तार बे. ॥३॥ अन्नयं सर्वसत्वेभ्यो, यो ददाति दयापरः ॥ तस्य देहाधिमुक्तस्य, जयं नास्ति कुतश्चन ॥४॥ अर्थ-जे माणस दयामां तत्पर अश्ने सर्व प्राणीजने अजयदान आपे , तेने मृत्युबाद क्यांय पण नय थतो नथी. ॥४॥ अजयदान देवाथी "आ माणस कट्याणकारी, दयालु, तथा कृपाना समुज सरखो ने” एवी रीतनी कीर्ति आ लोकमां थाय ने अने परलोकमां राज्यसंपदादिक लोगोनो समूह मले बे. कडं ने केदीर्घमायुः परं रूप-मारोग्यं श्लाघनीयता ॥ अहिंसायाः फलं सर्व, किमन्यत्कामदैव सा ॥१॥ अर्थ- लांबु आयुष्य, उत्कृष्टरूप, आरोग्यता तथा कीर्ति ए सघलु अहिंसा, फल बे; माटे कामघा वली बीजी कई बे ? ते अहिंसा कामघा ॥१॥ ___ पण जे धर्मबुद्धिथी हिंसा करे , तेने कट्याण के, पुण्य श्रतुं नश्री. कां ने के, हिंसा विघ्नाय जायेत, विप्रशांत्य कृतापि हि ॥ कुलाचारधियाप्येषा, कृता कुलविनाशिनी ॥१॥ . अर्थ- विघ्नोनी शांतिमाटे पण करेली हिंसा खरेखर विघ्न करनारी थाय ने तेम कुलाचारनी बुद्धिथी करेली हिंसा पण कुखनो नाश करनारी थाय ने ॥१॥
SR No.022144
Book TitleUpdesh Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnamandir Gani, Shravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek Samiti
Publication Year
Total Pages208
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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