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________________ ६४ अशठ गुण पर जायगा व लोगों में भी किसी प्रकार बाधा उपस्थित न होगी यह सोचकर उसने वैसा ही किया। पश्चात् भोजन करके दोनों जने महल के शिखर पर चढ़े । द्रोणक मूल ही से बुद्धि रहित था। साथ ही इस वक्त उसका मन अनेक संकल्प विकल्प से घिरा हुआ था। जिससे वह मित्र को झरोखे की ओर आने के लिये कहता हुआ स्वयं अकेला ही वहां चढ़ गया साथ ही झरोखा टूट गया ताकि वह नीचे गिरकर मर गया । तब वीरदेव उसे गिरता देख, मुह से हाहाकार करता हुआ झटपट वहां से नीचे उतर कर उसे देखने लगा तो वह उसे मरा हुआ दृष्टि में आया । तो उसने हे मित्र! हे मित्रवत्सल, हे छल दूषण रहित ! हे नीति-मार्ग के बताने वाले ! इत्यादि नाना प्रकार का विलाप करके उसका मृत कार्य किया। (पश्चात् वह सोचने लगा कि) यह जीवन पानी के बिन्दु के समान चंचल है । यौवन विद्युत् के समान चंचल है । अतएव कौन विवेकी पुरुष गृहवास में फंसा रहे ? यह सोचकर सम्यक्त्व दाता गुरु से दीक्षा लेकर तीसरे 4 वेयक विमान में वह देदीप्यमान देवता हुआ । तदनंतर इस जम्बूद्वीप में महाविदेह क्षेत्र में इन्द्र का शरीर जैसे तत्काल वज्र को धारण करता है, तथा सहस्र नेत्र युक्त है वैसे ही सजकर तैयार किये हुए वनमणि (हीरों) को धारण करने वाला तथा सहस्रों आम्र वृक्षों से सुशोभित चंपावास नामक श्रेष्ठ नगर है। वहां कल्याण साधन में सदैव मन रखने वाला माणिभद्र नामक श्रेष्ठि था । उसकी जिनधर्म पर पूर्ण प्रीतिवान् हरिमती नामक प्रिया थी। उनके घर उक्त वीरदेव का जीव तीसरे प्रैवेयक विमान से च्यवकर पूर्णभद्र नामक उनका पुत्र हुआ। उसने प्रथम समय ही में प्रथम ही शब्द उच्चारण
SR No.022137
Book TitleDharmratna Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages308
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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