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________________ चक्रदेव की कथा ८३ वह दुष्कर तपश्चरण करता हुआ केवल परोपकार करने ही में मन रखकर मृत्युवश हो प्राणत देवलोक में उन्नीस सागरोपम की आयुष्य से देवता हुआ। उतना समय पूरा कर वहां च्यवन होकर वह जंबूद्वीपान्तर्गत ऐरवत क्षेत्र के गजपुर नगर में हरिनंदि नामक परम श्रावक श्रेष्ठि के घर उसकी लक्ष्मीवती नामक स्त्री की कुक्षि से वीरदेव नामक पुत्र हुआ, उसने श्रीमानभंग नामक श्रेष्ठ गुरु से श्रावक व्रत लिया । धनदेव भी उस समय उत्कृष्ट विष के वेग से मरकर नौ सागरोपम की आयुष्य से पंकप्रभा नामक नारकी में उत्पन्न हुआ। वहां से निकलकर सर्प हुआ। वह वन में लगी हुई भयंकर अग्नि में सर्वांग से जलकर उसी नारकी में लगभग दस सागरोपम की आयुष्य से नारकपन में उत्पन्न हुआ। वहां से तिर्यंच भव में भ्रमण करके वह उक्त गजपुर में इन्द्रनाग श्रेष्टि की नंदिमती भार्या के उदर से द्रोणक नामक पुत्र हुआ। वहां भी वे पूर्व भव की प्रीति के योग से मिलकर एक बाजार में व्यापार करने लगे । उसमें उनने बहुत द्रव्य बढ़ाया। तब पापी द्रोणक विचारने लगा कि मेरे इस भागीदार को किस प्रकार मार डालना चाहिये ? हां एक उपाय है, वह यह है कि आकाश को स्पर्श करे ऐसा ऊंचा महल बंधवाना । उसके शिखर पर लोहे के खीलों से जड़ा हुआ झरोखा बनवाना । पश्चात् सह कुटुम्ब वीरदेव को भोजन करने के लिये बुलाना । पश्चात् उसको उक्त झरोखा बताना, ताकि वह उसे रमणीय जान स्वयं उस पर चढ़कर बैठ जायगा उसी समय वह खड़खड़ करता हुआ वहां से गिरेगा व तुरन्त मर जावेगा। ताकि निर्विवाद यह संपूर्ण द्रव्य मेरा हो
SR No.022137
Book TitleDharmratna Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages308
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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