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________________ अशठ गुण पर देख राजा ने क्रोध से आरक्त नेत्र कर प्राणदण्ड की आज्ञा दी। तब चक्रदेव कहने लगा कि-इस वत्सल हृदय, सरल प्रकृति मेरे मित्र ने और कौनसा विरुद्ध कार्य किया है ? ___तब राजा ने नगर देवता का कहा हुआ उसका सब दुष्कर्म कह सुनाया, जिसे सुन सार्थवाह पुत्र विचारने लगा कि- अमृत में से विष कैसे पैदा हो अथवा चन्द्र बिम्ब में से अग्नि वर्षा कैसे हो, इसी प्रकार ऐसे मित्र द्वारा ऐसा निकृष्ट कर्म कैसे हुआ होगा। इस प्रकार विचार करके चक्रदेव ने राजा के चरणों में प्रणाम करके ( विनंती करके) अपने मित्र को छुडाया । तब राजा हर्षित होकर बोला कि - उपकारी अथवा निर्मत्सरी मनुष्य पर दयालु रहना, इसमें कौन-सा बडप्पन है ? किन्तु शत्रु और बिना विचारे अपराध करने वाले पर जिसका मन दयालु हो, उसी को सज्जन जानना। . तदनंतर शतपत्र नामक पुष्प के समान निर्मल चरित्र उक्त सार्थवाह पुत्र को सुभटों के साथ उसके घर विदा किया। इसके उपरांत चक्रदेव ने यज्ञदेव को प्रीतियुक्त वचनों से बुलाया, तथा सत्कार सम्मान देकर उसके घर भेजा। तब नगर-जनों में चर्चा चली कि, इस सार्थवाह पुत्र को ही धन्य है कि जिसकी अपकार करने वाले पर भी ऐसी बुद्धि स्फुरित होती है। अब उक्त चक्रदेव ने वैराग्य मार्ग में लीन होकर किसी दिन श्री अग्निभूति नामक गुरु के पास दुःख रूपी कक्ष-वन को जलाने के लिए अग्नि के समान दीक्षा ग्रहण की। वह दीर्घकाल तक अति उग्र साधुत्व तथा निष्कपट ब्रह्मचर्य का पालन कर ब्रह्म देवलोक में नव सागरोपम की आयुष्य वाला देव हुआ । वहां से च्यवन कर वह शत्रुओं से अजेय मंगलावती
SR No.022137
Book TitleDharmratna Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages308
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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