SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पापभीरु गुण पर मुनि सोचने लगे कि हे जीव ! तू ने अज्ञान वश निर्विवेक होकर नरक में अनन्त बार दुस्सह वेदनाएं सहन करी हैं व तियंच गति में भी तूने महान् भार वहन करने की, अंकन करने की, दुहाने की, लम्बी दूर चलने की, शीत, घाम सहन करने की तथा भूख, प्यास आदि की असह्य दुःख पीड़ाएं सहन की हैं। इसलिये हे धीर आत्मन् ! इस अल्प पीड़ा में तू विषाद मत कर, कारण कि-समुद्र को तैर कर पार कर लेने पर छिछले पानी में कौन डूबता है ? - इससे हे जीव ! तू विशुद्ध मन रखकर सकल जीवों पर क्रूर भाव का त्याग कर और इन बहुत से कर्म क्षय कराने में सहायता कराने वाले समरविजय पर तो विशेषता से क्रूर भाव का त्याग कर । . हे जीव ! तेने पूर्व में भी करता नहीं की, जिससे यहां तेने धर्म पाया है, ऐसा चिन्तवन करते हुए उसने पाप निवारण करने के साथ ही प्राण का भी त्याग किया। वहां से वह सुखमय सहस्रार नामक देवलोक में सुकृत के जोर से देवता हुआ, वहां से च्यवन होने पर वह संतोषशाली जीव महा-विदेह में मनुष्य होकर मुक्ति पावेगा। इस प्रकार अशुद्ध परिणाम को दूर करने के लिये श्री कीर्तिचन्द्र राजा का चरित्र भली भांति सुनकर जन्म, जरा व मृत्यु से भयभीत हे भव्य जनों! तुम मुख्य बुद्धि से अकरता नामक गुण को धारण करो। * इति कीर्तिचन्द्र राजा की कथा समाप्त *
SR No.022137
Book TitleDharmratna Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages308
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy