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________________ विजयकुमार की कथा बात किसी से न कहना चाहिये । उस कमघुद्धि पुत्र ने किसी समय हँसते हँसते पूछा कि-हे माता! क्या तुमने हमारे पिता को कुए में डाला था, यह बात सत्य है ? वह पूछने लगी कि, यह तुझे कैसे जान पड़ा ? तब वह बोला कि पिता ने बात कही थी उससे यह सुन कर वह इतनी लज्जित हुई कि हृदय फट जाने से वह मृत्यु को प्राप्त हो गई। यह बात जान कर विजय ने अपने को अल्पाशय मान निन्दा करता हुआ शोकातुर हो स्त्री का अग्निसंस्कारादि मृत कार्य किया। तदनंतर उसका मन संवेग से रंगित हो जाने से अवसर पाकर विमलसूरि के पास शीव (उसने) तुरन्त निरवद्य प्रव्रज्या अंगीकार की। बहुत वर्षों तक साधुत्व पालन कर शान्त स्वभाव होने से स्वस्थ शरीर को त्याग कर देवता हुआ और अनुक्रम से सिद्धि पावेगा। इस प्रकार सौम्यभाव जनक उदार और उत्कृष्ट विजय . श्रेष्ठी का वचन सुनकर गुणशाली भव्य जनों ! तुम जन्म का उच्छेद करने के हेतु प्रकृति सौम्यता नाम तृतीय गुण धारण करो। प्रकृति सौम्यरूप तृतीय गुण बताया, अब लोकप्रियता रूप चतुर्थ गुण कहते हैं। इहपरलोयविरुद्ध', न सेवए दाणविणयसीलड्ढो । लोयपिओ जणाणं, जणेई धम्ममि बहुमाणं ॥११॥ अर्थ-जो मनुष्य दाता विनयवन्त और सुशील होकर इसलोक व परलोक से जो विरुद्ध कर्म हो। उनको नहीं करता वह लोक प्रिय होकर लोगों को धर्म में बहुमान उत्पन्न करे । इसीलिये कहा है कि-- (लोक विरुद्ध कार्य इस प्रकार हैं:--
SR No.022137
Book TitleDharmratna Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages308
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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