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________________ विजयकुमार की कथा रूपवानत्वरूप द्वितीय गुण कहाअब प्रकृति-सोमत्व रूप तृतीय गुण का वर्णन कहते हैं: पयई सोमसहावो, न पावकम्मे पवत्तए पायं । होइ सुहसेवणिजो, पसमनिमित्तं परेसि पि ॥१०॥ अर्थ-प्रकृति से शांत स्वभावचाला प्रायः पापकर्म में प्रवर्तित नहीं होता और सुख से सेवन किया जा सकता है, साथ ही दूसरों को भी शांति दायक होता है । प्रकृति से याने अकृत्रिमपने से, जो सौम्य स्वभाव वाला याने जिसकी भीषण आकृति न होने से उसका विश्वास किया जा सके ऐसा होवे वह पुरुष पापकर्म याने मारकाट आदि अथवा हिंसा चोरी आदि दुष्ट कार्यों में प्रायः याने बहुत करके प्रवर्तित होता ही नहीं । प्रायः कहने का यह मतलब है कि निर्वाह हो ही न सकता हो तो बात पृथक् है परन्तु इसके सिवाय प्रवर्तित नहीं होता, और इसी से वह सुखसेवनाय याने बिना क्लेश के आराधन किया जा सके ऐसा तथा प्रशम का निमित्त याने उपशम का कारण भी होता है-इस जगह मूल में अपि शब्द आया है वह समुच्चय के लिये होने से प्रशम निमित्तच' ऐसा अन्वय में जोड़ना (किसको प्रशम का निमित होता सो कहते हैं ) पर को याने ऐसा वैसा न होवे उस दूसरे जन को-दृष्टान्त के रूप में विजयश्रेष्ठि के समान । उक्त विजयकुमार की कथा इस प्रकार है: यहां (भरतक्षेत्र में ) विजयवर्द्वन नामक नगर में विशाल नामक एक सुप्रसिद्ध श्रेष्ठो था। उसके क्रोधरूपी योद्वा को विजय करने वाला विजय नामक पुत्र था । उक्त कुमार ने अपने शिक्षक के मुख से किसी समय यह वचन सुना कि- " आत्महित चाहने वाल मनुष्य ने क्षमावान होना चाहिये ।" जिसके लिये कहा है
SR No.022137
Book TitleDharmratna Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages308
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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