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________________ २७० परहितार्थकारिता गुण पर मार । हे कुमार ! आज जो यह मस्तक काटता तो उससे एक सौ आठ मस्तक पूरे हो जाते और मैं अपना रूप प्रकट करके उसे सिद्ध हो जाती । परन्तु इतने ही में हे राजकुमार ! तू करुणा निधान यहां आ पहुँचा । अब मैं तेरे महान पराक्रम से संतुष्ट हुई हूँ । अतः इच्छित वर मांग । परहिताकांक्षी कुमार बोला कि-जो तू संतुष्ट होकर मुझे इष्ट वर देती हो तो तू मन वचन व काया से शीघ्र ही जीवहिंसा को त्याग दे । तू तप और शील से विकल है। अतः तुझे धर्म को प्राप्ति कैसे होवे, इसलिये यही तेरा धर्म है कि-यह त्रस जीवों का वध छोड़ दे । जैसे मूल बिना वृक्ष नहीं ऊग सकता, वैसे ही जीवों को दया बिना धर्म नहीं होता। इसलिये हे भद्र ! तेरे सन्मुख कभी भी जीवहिंसा मत होने दे । वैसे ही संसार में दुःख देने को तत्पर रहने वाले मद्य से भी तू संतुष्ट मत हो। जो तू ने पूर्व में सम्यक्त्व रीति से जिन धर्म किया होता तो ऐसी कुदेव योनि में देवता नहीं होती। इसलिये तू जीवबध छोड़ और तेरे भक्त भी करुणावान हों। तू जिनप्रतिमाओं की पूजा कर और जिनभाषित सम्यक्त्व धारण कर । तथा नू जिनमार्गानुयायी जनों को सर्व कार्यों में सहायक हो कि-जिससे मनुष्य भव पाकर शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त करेगी। तब कालिका बोली कि-मैं आज ही से सर्व जीवों को अपने जीव समान देखूगी यह कह कर वह सहसा अदृश्य हो गई। ___अब मन्त्री कुमार ने भीम को प्रणाम किया तब कुमार भी उससे मिल ( आलिंगन ) कर कहने लगा कि-हे मित्र ! तू जानते हुए भी इस पापी के वश में कैसे आगया । तब मन्त्री कुमार बोला कि-हे मित्र ! आज रात्रि के प्रथम प्रहर में तेरी
SR No.022137
Book TitleDharmratna Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages308
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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