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________________ भीमकुमार की कथा २६९ जिनेश्वर ही मेरे देव हैं। इसलिये सर्व अवस्था में मेरे वही स्मर्त्तव्य हैं, अन्य कोई नहीं। तथा जैन धर्म का कट्टर पक्षपाती भीम नामक मेरा मित्र और कुल स्वामी जिसे कि-कोई कुलिंगी कहीं ले गया है, वही मुझे शरणदाता है। ___ योगी बोला कि-अरे ! तेरा स्वामी तो मेरे भय से प्रथम ही भाग गया है । अन्यथा उसी के मस्तक से मैं इस कालिका देवी की पूजा करता । उसके न मिलने पर अब तेरे ही मस्तक द्वारा मुझे उसकी पूजा करना है, इसलिये हे मूर्ख ! वह कायर पुरुष तुझे क्या शरण हो सकेगा ? अरे ! तेरा वह स्वामी तो इस समय विध्याचल की गुफा में विद्यमान श्वेतांबर भिक्षुओं के पास है । ऐसा मुझे कालिका देवी ने सूचित किया है । देख ! यह उसी की तीक्ष्ण तलवार मैंने मंगाई है और इसी से निस्सन्देह अभी तेरा मस्तक कटेगा। इस प्रकार दोनों की बातें सुन कुमार दुःख व क्रोध के आवेश से विचार करने लगा कि-ओह ! यह पापी मेरे मित्र बुद्धि मकरध्वज को भी कष्ट देने लगा है। इससे ललकारकर उसको कहने लगा कि-अरे क्षुद्रयोगी! अब पुरुष होकर सन्मुख खड़ा रह । तेरा मस्तक लेकर मैं जगत भर के दुःख टालने वाला हूँ। तब उक्त मनुष्य को छोड़कर योगी कुमार की ओर दौड़ा । तब उसने द्वार के किवाड़ के धक्के से उसके हाथ में की तलवार गिरा दी । पश्चात् उसके केश पकड़ कर भूमि पर पटक, छाती पर पग देकर भीमकुमार ज्योंही उसका मस्तक काटने लगा त्यों ही काली देवी आकाश में प्रकट हुई । वह बोली कि-हे वीर ! मैं प्रसन्न हुई हूँ। यह मेरा भक्त है जो कि लोगों को छलकर उनके मस्तक कमलों से मेरी पूजा करता रहता है उसे तू मत
SR No.022137
Book TitleDharmratna Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages308
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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