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________________ २२२ - विनय गुण पर कहा भी है किविनय का फल शुश्रूषा है । शुश्रूषा का फल श्रुतज्ञान है । ज्ञान का फल विरति है । विरती का फल आश्रव निरोध है अर्थात् संवर है । संवर का फल तपोबल है । तप का फल निर्जरा है । निर्जरा से क्रिया की निवृत्ति होती है । क्रियानिवृत्त होने से अयोगित्व होता है । अयोगित्व (योग निरोध) से भव संतति का क्षय होता है । भव संतति के क्षय से मोक्ष होता है। इसलिये विनय सकल कल्याण का भाजन है । व जैसे झाड़ के मूल में से स्कंध (पीड ) होती है, स्कंध में से शाखाएं होती हैं । शाखाओं से प्रति शाखाए होती हैं । प्रतिशाखाओं में से पत्र, पुष्प, फल और रस होता है। ऐसे ही विनय धर्म का मूल है, और मोक्ष उसका फल है । विनय ही से कोर्ति तथा समस्त श्र तज्ञान शीघ्र प्राप्त किया जा सकता है। . . इस प्रकार गुरु का वचन सुन वासव मुनि, पवन से जैसे दावानल बढ़ता है। वैसे सर्प के समान कर होकर कोप से धकधकाता हुआ अधिक जलने लगा। एक समय अकार्य में प्रवृत्त होने पर अन्य मुनियों के मना करने पर वह उन पर भी अतिशय प्रवषी होकर इहलोक-परलोक से बेदरकार हो गया । सबको मारने के वास्ते पानी के अन्दर तालपुट विष डालके वह भयभीत हुआ एक दिशा में भग गया। इतने में गच्छ पर अनुकंपा रखने वाली देवी ने वह बात बताकर आहार करने को उद्यत हुए सर्व साधुओं को रोका। वह वासव वन में चला गया । वहां किसी स्थान में दावानल में फंसकर जल मरा व सातवीं नरक में अप्रतिष्ठान
SR No.022137
Book TitleDharmratna Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages308
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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