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________________ १६० सत्कथ गुण पर उसकी मनोरमा नामक भार्या थी । उसकी पूर्ण गुणवती रोहिणी नामक बालविधवा पुत्री थी। वह जिन सिद्धान्त के अर्थ को पूछकर अवधारण करके समझी हुई थी। वह त्रिकाल जिनपूजा करती । सफल पाठ करती। तथा नित्य निश्चिन्तता से आवश्यक आदि कृत्य करती थी। वह धर्म का संचय करती । किसी को ठगती नहीं, गुरुजनों के चरण पूजती और कर्मप्रकृति आदि ग्रंथों को अपने नाम के समान विचारती थी। ___ वह श्रेष्ठ दान देती, गंगाजल के समान उज्ज्वल शील धारण करती, यथाशक्ति तप करती और शुद्ध मन रखकर शुभ भावनाओं का ध्यान करती थी इस प्रकार वह निर्मल गृहिधर्म पालती, सम्यक्त्व में अचल रहती, मोह को बलपूर्वक तोड़ती और सच्चे जिनमत को प्रकट करने में कुशल रहती हुई दिवस व्यतीत करती थी। अब इधर चित्तवृत्ति रूप वन में निखिल जगत् को दबाकर रखने में अतिशय प्रचंड मोह नामक राजा निष्कंटक राज्य पालता था । उसने किसी समय अपने दूत के मुख से सुना कि रोहिणी उसके दोष प्रकट करने में प्रवोण रहती है । यह सुनकर वह अति उद्विग्न हुआ । वह सोचने लगा कि- देखो, यह अति कपटी सदागम से भ्रमित चित्त वाली रोहिणी हमारे दोष प्रकट करने में कितना भाग लेती है ? अब जो यह और कुछ समय इसी प्रकार करती रहेगी तो हमारा सत्यानाश कर देगी व कोई हमारी धूल भी नहीं देख सकेगा। __वह इस तरह विचार कर ही रहा था कि इतने में रागकेशरी नामक उसका पुत्र वहां आ पहुँचा । उसने इसे नमन किया, किन्तु मोह राजा इतना चिन्तामग्न हो गया था कि उसे उसका
SR No.022137
Book TitleDharmratna Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages308
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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