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________________ रोहिणी की कथा १५१ मूल का अर्थ-अशुभ कथा के प्रसंग से कलुषित हुए मन चाले का विवेक रत्न नष्ट हो जाता है, और धर्म तो विवेक प्रधान है । इससे धर्मार्थी पुरुष ने सत्कथ होना चाहिये। टीका का अर्थः-विवेक याने भली बुरी अथवा खरी खोटी वस्तु का परिज्ञान । वह अज्ञान रूप अंधकार का नाशक होने से रत्न माना जाता है। वह विवेक रत्न अशुभ कथाओं याने स्त्री आदि की बातो में संग याने आसक्ति, उससे कलुषित हुआ है मन याने अन्तःकरण जिसका, वैसे पुरुष के पास से नष्ट होता है याने दूर हो जाता है । अर्थात् यहां यह तात्पर्य है कि- विकथा में प्रवृत्त प्राणी योग्य अयोग्य का विवेक नहीं कर सकता अर्थात् स्वार्थ हानि का भी लक्ष्य नहीं कर सकता, रोहिणो के समान । धर्म तो विवेक सार ही है याने कि हिताहित के ज्ञानपूर्वक ही होता है, (मूल गाथा में निश्चयवाचक पद नहीं तो भी ) प्रत्येक वाक्य सावधारण होने से ( यहां अवधारण समझ लेना चाहिये) इस हेतु से सत् याने शोधन अर्थात् तीर्थकर गणधर और महर्षियों के चरित्र संबंधी कथा याने बातचीत जो करता है वह सत्कथ कहलाता है, इसलिये धर्मार्थी याने धर्म करने को इच्छा रखने वाले पुरुष ने वैसा ही सत्कथ होना चाहिये किजिससे वह धर्मरत्न के योग्य हो सके। रोहिणी का उदाहरण इस प्रकार है:यहां न्याय की रीति से शोभित कुडिनी नामकी विशाल नगरी थी। वहां जितशत्रु नामक राजा था। वह दुर्जनों का तो शत्रु ही था। वहीं सुदर्शन नामक सेठ था । यह प्रायः विकथा से विरक्त हो सत्कथगुण रूप रत्न का रोहणाचल समान था ।
SR No.022137
Book TitleDharmratna Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages308
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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