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________________ पुरन्दरराजा की कथा इधर चिरकाल अकलंक चारित्र पालन करके विजयसेन श्रमण अनन्त सुख के धाम मोक्ष को प्राप्त हुए । १५७ पुरन्दर राजा ने भी अपने पुत्र श्रीगुप्त को राज्य पर स्थापित करके श्री विमलबोध केवली से दीक्षा ग्रहण कर ली । वह अनुक्रम से गीतार्थ हो एकाकी बिहार प्रतिमा को अंगीकृत करके कुरु देश के अस्थिक ग्राम के बाहिर आतापना लेता हुआ सन्मुख स्थित रूक्ष पुद्गल पर दृष्टि रख ध्यान में लोन होकर खड़ा था, इतने में वज्रभुज ने उसे देखा । तत्र पल्लिपति कुपित हो कर उसको कहने लगा कि उस समय उसने मेरा मान भंग किया था, तो अब तू कहां जावेगा । इस प्रकार कठोर वचन कह कर उस पापी ने मुनि के चारों ओर तृण, काष्ट व पत्तों का ढेर करके पीली ज्वालाओं से आकाश को भर देने वाली आग जलाई । तब ज्यों ज्यों उनके शरीर की जलती हुई नसें सिकुड़ने लगी त्यों त्यों उनका शुभभाव पूर्ण ध्यान बढ़ने लगा । वे विचार करने लगे कि - हे जीव ! तू ने अनन्तों बार इससे भी अनन्त गुणा दाह करने वाले नरक की अग्नि सहन की है । और तिर्यचपन में भी हे जीव ! तू वन में जलती हुई दावानल में अनन्त बार जला है, तथापि अकाम निर्जरा से उस समय तू कुछ भी लाभ प्राप्त नहीं कर सका । परन्तु इस समय तो तू विशुद्ध ध्यानी, ज्ञानी और सकाम रहकर जो यह वेदना सहता है तो थोड़े ही' में तुझे अनन्त गुण निर्जरा प्राप्त होगी । इसलिये हे जीव ! इस अनन्त कर्मों का क्षय करने में सहायक होने वाले पल्लीपति पर केवल मित्रता भाव धारण करके तूं क्षणभर इस पीड़ा को सम्यक् रीति से सहन कर ।
SR No.022137
Book TitleDharmratna Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages308
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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