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________________ गुणरागित्व गुण पर रूपी गहन वन को जलाने में दहन समान दीक्षा ग्रहण करी । तदनन्तर नमित सुर, असुर, किन्नर और विद्याधरों द्वारा गीयमान, निर्मल यशस्वी आचार्य भव्यजनों का उपकार करने के हेतु अन्य स्थल को विहार करने लगे । १५६ इधर पुरन्दर राजा शत्रु सैन्य को दलित करके राज्य का प्रति पालन करने लगा । उसने बहुत से अपूर्व चैत्य तथा जीर्णोद्धार कराये । वह साधर्मि वात्सल्य में उद्यत रहता । इन्द्रियों को वश में रखता तथा प्रजा का संकटों से अपनी संतति के समान रक्षण करता था । वह एक दिन बन्धुमती के साथ झरोखे में बैठकर नगर की शोभा देखने लगा । इतने में उसने कोढी जैसे मक्खियों से घिरा हो वैसे बहुत से नगर के बालकों से घिरा हुआ, धूल से भरा हुआ, बहुत बकबकाट करता, मात्र लंगोटी पहिरे हुए और क्रोध से चारों ओर दौड़ता हुआ एक पागल पुरुष देखा । वह Mast ब्राह्मण मित्र था कि- जिसने विद्या का आराधन नहीं किया । उसे पहिचान कर राजा ने विद्या देवी को स्मरण किया, तो वह प्रकट होकर कहने लगी कि इस ब्राह्मण ने गुणीजन के उपहास में तत्पर रहकर विद्या की विराधना की है। जिससे मैंने क्रुद्ध होकर भी तेरी दाक्षिण्यता के योग से इसे जीवित रहने दिया है, किन्तु शिक्षा मात्र के रूप में इसके ये हाल किये हैं । तब राजा देवी को इस प्रकार विनय करने लगा । हे देवी! जो भी यह ऐसा है, तो भी तू' इसे जैसा था वैसा ही कर और मुझ पर कृपा करके यह अपराध क्षमा कर । तब देवी उस ब्राह्मण को वैसा ही करके अंतर्ध्यान हो गई । बाद राजा ने उस ब्राह्मण को यथायोग्य सत्कार करके विदा किया ।
SR No.022137
Book TitleDharmratna Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages308
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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