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________________ जिससे दुर्गति में पड़ते हुए जन्नुओं को उससे धर रखता है, और उनको शुभ स्थान में पहुचाता है इससे वह धर्म कह लाया: है। __ वह धर्म ही रत्न माना जाता है-रत्न शब्द का अर्थ पूर्व वर्णन किया है, उस धर्मरत्न को जो चाहते हैं, वैसे स्वभाव वाले जो होते हैं वे धर्म रत्नार्थी कहलाते हैं, वैसे लोगों को__ मूल गाथा में प्राकृत के नियमानुसार चौथी के अर्थ में छठी विभक्ति का उपयोग किया है, जिसके लिये प्रभु श्री हेमचन्द्रसूरि महाराज ने अपने प्राकृत व्याकरण में कहा है कि "चतुर्थी के स्थान में षष्ठो करना" इस प्रकार गाथा का अक्षरार्थ बताया, भावार्थ तो इस प्रकार है:"नमनकर" इस पूर्वकाल दर्शक और उत्तरकाल की क्रिया के साथ संबन्ध रखने वाले इस प्रकार स्याद्वादरूपी सिंहनाद समानपद से एकान्त नित्य तथा एकान्त अनित्य वस्तु स्थापन करनेवाले वादी प्रतिवादीरूप दोनों हरिणों का मुख बंध किया हुआ है। ___ कारण कि एकान्त नित्य अथवा एकान अनित्य कर्ता पृथक २ दो क्रिया नहीं कर सकते, क्योंकि पृथक् २ क्रिया होने पर कर्ता भी पृथए २ हो जाते हैं, उससे दूसरी क्रिया करने के क्षण में कर्ता को या तो अनित्यता के अभाव का प्रसंग लागू पड़ेगा अथवा नित्यता के अभाव का प्रसंग लागू पड़ेगा, इस प्रकार दो प्रसंगों से एकान्त नित्यता तथा एकान्त अनित्यता का खंडन करना, अब विशेषणों का भावार्थ बताते हुए चार अतिशय कहते हैं 'सकलगुणरत्नकुलगृह.' इस पद से अंतिम तीर्थनायक भगवान् वीर प्रभु का पूजातिशय बताने में आता है, क्योंकि गुणवान् पुरुषों को दौडादौड़ से करने में आते प्रणाम के कारण
SR No.022137
Book TitleDharmratna Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages308
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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