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________________ पुरन्दरराजा की कथा १४५ भी लाभ न करके उलटी हानि करती है। साथ ही विद्या दायक गुरु की लघुता कराती । जैसे कच्चे घड़े में पानी रखने से वह जल्दी ही उसका नाश करता है, वैसे ही तुच्छ पात्र को दी हुई विद्या उसका अनर्थ करती है । चलनी के समान पात्र में विद्या देने से गुरु क्लेश पाता है और लोकों में अपवाद आदि होता है। तब अत्यन्त भक्तिपूर्वक कुमार के पुनः वही मांगणी करने पर वह सिद्ध पुरुष ब्राह्मण को भी विद्या देकर अपने स्थान को गया । तदनन्तर पूर्वोक्त विधि से कुमार ने उस विद्या की साधना की तो वह प्रगट होकर कहने लगी कि हे भद्र ! मैं तुझे सदा सिद्ध हो गई हूं, किन्तु ब्राह्मण कहां गया ? इसका तू विचार मत करना । वह बात समय पर स्वतः प्रगट हो जायगी। यह कह कर देवी अंतर्ध्यान हो गई। हाय २ उसको क्या हुआ होगा यह सोचता हुआ कुमार उक्त विद्या की पश्चात् सेवा करके नंदीपुर में आया। __विद्या की दी हुई सुवर्ण मुद्राओं से खूब दान भोग करते हुए वहां रहते कुमार की श्रीनन्दन नामक मंत्रीपुत्र के साथ मित्रता हो गई । अब उस नगर में श्रीशर राजा को महल पर खेलती हुई बन्धुमती नामक पुत्री को किसी अदृश्य पुरुष ने हरण करी । उसके विरह से राजा बारंबार मूर्छित होकर अति रुदन करने लगा तथा समस्त राजलोक तथा नगर लोक व्याकुल हो गये। यह देख तिलकमंत्री अपने श्रीनन्दन पुत्र को कहने लगा कि-हे वत्स ! राजपुत्री की खोज करने का उपाय सोच । क्योंकि
SR No.022137
Book TitleDharmratna Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages308
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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