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________________ १३६ सौम्यदृष्टित्व गुण पर यतः - विश्वस्याऽपि स वल्लभो गुणगणस्तं संश्रयत्यन्वहम् । तेनेयं समलंकृता वसुमंती तस्मै नमः संततं । तस्मात् धन्यतमः समस्ति न परस्तस्या नुगाऽकामधुक् । तस्मिन्नाश्रयतां यशांसि दधते संतोषभाक् यः सदा ॥ यथा- जो सदा संतोषी होता है वह जगत मात्र को प्रिय होता है । उसको सदैव गुण घेरे रहते हैं। उससे यह पृथ्वी अलंकृत होती है । उसको नित्य नमस्कार हो। उससे दूसरा कोई धन्यतम नहीं। उसके पीछे कामधेनु खड़ी रहती है और उसीमें सकल यश आश्रय लेते हैं। यह सुन सोमवसु त्रिलोचन को कहने लगा कि-हे परमार्थ ज्ञाता ! आपको मेरा नमस्कार है। त्रिलोचन बोला कि- हे भद्र ! मैं यह कहता हूँ कि तू सुलक्षण है। कारण कि मध्यस्थ होकर तू इस प्रकार सद्धर्म विचार कर देख सकता है। पश्चात् सोमवसु उक्त पंडित की आज्ञा ले उसके घर से निकल कर अतिशुद्ध धर्म युक्त गुरु को प्राप्त करने की इच्छा कर शोध करने लगा। इतने में उसने पूर्वोक्त युक्ति से प्राशुक आहार को खोजते युग मात्र निश्चित नेत्र से चलते हुए जैन श्रमण देखे । तब वह हर्षित हो सोचने लगा कि-मेरे सकल मनोरथ पूर्ण हुए क्योंकि कल्पतरु के समान इन पूज्य गुरुओं को मैने देखा । उनके पीछे-पीछे जा उद्यान में आकर ठहरे हुए सुघोष गुरु को वंदन करके उसने उक्त तीन पदों का अर्थ पूछा । तब उक्त आचार्य ने भी वैसा ही अर्थ कहा।।
SR No.022137
Book TitleDharmratna Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages308
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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