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प्राक्कथन
- श्री हरिभद्रसूरि जैन-साहित्य में एक युगस्रष्टा के रूप में जाने जाते हैं। उनके उपलब्ध साहित्य से ही हमें उनकी बहुश्रुतता समन्वयात्मकता एवं प्रतिभा का परिचय मिलता है । उनकी शतमुखी प्रतिभा का परिचय तत्कालीन दार्शनिक ग्रन्थों में भी मिलता है । जैन न्याय, योगशास्त्र, एवं जैनकथा-साहित्य में उन्होंने युगान्तर उपस्थित किया। उनके कृतित्व की विराट व्यञ्जना का परिचय तो इसी से मिलता है कि उन्होंने १४४४ प्रकरण ग्रन्थों का सर्जन किया। संस्कृत एवं प्राकृत भाषाओं पर उनका समान अधिकार था। जैनधर्म के उत्तरकालीन साहित्य के इतिहास में ये मुख्य लेखक रहे हैं एवं जैन समाज के संगठन में ये प्रमुख व्यवस्थापक रहे हैं। वास्तव में अपनी बहुमुखी प्रतिभा के कारण ये जैनधर्म के पूर्वकालीन तथा उत्तरकालीन इतिहास के मध्यवर्ती सभा-स्तम्भ रहे हैं। उनके उपलब्ध साहित्य से पता लगता है कि वे श्वेताम्बर सम्प्रदाय के थे एवं उनके गच्छ का नाम विद्याधर था। उनके गच्छपति प्राचार्य का नाम जिनभट तथा दीक्षागुरु का नाम जिनदत्त था। उनकी धर्मजननी साध्वी का नाम याकिनी महत्तरा था। उनका जन्म चित्रकूट (वर्तमान चित्तोड) में हुआ था। ये अपने समय के समर्थ ब्राह्मण तथा राज्य पुरोहित थे। विद्वत्ता के अभिमान में उन्होंने एक बार प्रतिज्ञा की कि जिसका कहा उनकी समझ में नहीं आयेगा वे उसी के शिष्य बन जायेंगे । एक दिन वे