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________________ 5) वारी श्रोता के मन को इतना ज्यादा आनन्द देने वाली होती है कि कदाचित् ६ मास तक सतत सुनी जाय तो भी वहां भूख प्यास या थकान आदि किसी भी पीड़ा का अनुभव नहीं होता । उपरांत उसमें से एक एक वाक्य भी अनेकों के भिन्न भिन्न संशय को दूर करने को जोरदार शक्ति रखता है एवं जिनवाणी का रस भी इतना अगाध होता है कि समस्त जीवनभर सुनने पर भी श्रोता को तृप्ति नहीं होती, उसे पूर्ण संतुष्टि (सुन चुकने की) नहीं होती, परन्तु अभी भी अधिकाधिक सुनने की इच्छा अतृप्त इच्छा रहा करती है । • प्रभु का काययोग अर्थात् कायिक प्रवृत्ति भी सब देवताओं से अधिक तेजस्वी तथा मनोहर होती है। तब भी उसकी विशिष्टता यह है कि उससे जीवों के समूह घबराते नहीं हैं पर हमेशा उन्हें प्रशांत स्वरूप वाले कर देती है । उनके पास आये हुए सिंह, हिरन, शेर, बकरी, सर्प, मोर आदि परस्पर वैर भूल कर मित्र जैसे बन कर शांत हो कर बैठ जाते हैं । योमीश्वर : अर्थात् (१) योगियों के ईश्वर। इसमें 'योग' अर्थात् जिससे आत्मा केवलज्ञानादि के साथ जुड़ जाता है वह धर्म - शुक्ल ध्यान । ऐसे योग वाले साधु ही योगी हैं। उनके लिए ईश्वर समान अथवा ऐश्वर्यवान। ये योगी प्रभु के ही उपदेश से योग में प्रवर्तमान होने से प्रभु के ही गिने जाते हैं। उनसे प्रभु का ऐश्वयं गिना जाय वैसे शोभावान भी । अत: प्रभु उनके ईश्वर अथवा उनके होने से ऐश्वयबान कहलाते हैं। जैसे चक्रवर्ती ३२००० मुकुटबद्ध राजाओं के कारण ऐश्वर्यवान है । अथवा (२) प्रभु योगियों के ईश्वर अर्थात् स्वामी हैं ।
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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