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________________ को नमस्कार करते हुए वे इस प्रकार कहते हैं: वीरं सुक्कज्माणाग्गिदड्डम्मिंधणं पणमिऊण । जोईसरं सरणं झाणज्झयणं पवक्खामि ॥१॥ ......अर्थ:-शुक्लध्यान रूपी. अग्नि से कर्म ईधन को जलाने वाले योगेश्वर (योगीश्वर, योगीसर) तथा शरण करने योग्य श्री वीरप्रभु को नमस्कार करके मैं 'ध्यान' का अध्ययन कहूंगा।' विवेचन : . यहां वर्तमान जिनशासन के अधिपति चौबीसवें तीर्थकर श्री बीर विभु को नमस्कार किया है। ये 'वीर' अर्थात् विशेष रूप से कर्मों का 'ईरण' करने वाले (निकाल भगाने वाले) हैं । वह भी ऐसा कि स्वात्मा पर एक भी कर्म बाकी न रहे और जाने के बाद पुन: कभी न आवे । अथवा 'वीर' याने मोक्ष में जाने वाले। उन्होंने शुक्ल ध्यान से कर्मों को निकाल भगाया। ' 'शुक्ल' याने शोक को पीड़ित करके या उसे थकाकर के रवाना करने वाला ध्यान। प्रश्न- ध्यान क्या वस्तु (चीज) है ? उत्तर- 'ध्यान' अर्थात् जिसके द्वारा तस्व का मनन किया जाय, एकाग्र चितन किया जाय । अत: तत्त्व पर एकाग्रता से चित्त को रोक रखना । मात्र चिंतन में, भावना में या विचारणा में चित्त एक वस्तु पर से दूसरी पर तथा दूसरी से तीसरी पर भटकता रहता है। तब ध्यान में वह एक ही विषय पर एकाग्र व स्थिर बनता है, उसे स्थिर रखा जाता है। यह ध्यान भी धर्म ध्यान नहीं, परन्तु
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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