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________________ ( १७७ इसका चिंतन इस प्रकार किया जाय कि 'अहो ! जगत में छ द्रव्य कैसे कैसे एक दूसरे से बिलकुल स्वतन्त्र लक्षण वाले हैं, इससे कभी भी यह एक द्रव्य दूसरे द्रव्य रूप नहीं हो जाता। फिर धर्मास्तिकाय द्रव्य का लक्षण 'जीव तथा पुद्गल को गति में सहायक' होना है इसीलिए ये दो द्रव्य लोकाकाश के अन्त तक जा सकते हैं, आगे अलोक में नहीं। क्योंकि धर्मास्तिकाय लोकाकाशा व्यापी ही है। मछली गमन तो अपनी शक्ति से ही करती है पर उसमें पानी सहायक होने से पानी के किनारे तक ही वह जा सकती है, आगे नहीं। धर्मास्तिकाय की सहायता से जीव तथा पुद्गल के लिए ऐसी ही गति है । इसी तरह से अधर्मास्तिकाय का लक्षण 'इन दो द्रव्यों को स्थिति में सहायक' होना है। अशक्त वृद्ध पुरुष को चलते हुए बीच में खड़े रहने के लिए लकड़ी सहायक होती है, इसी तरह जीव व पुद्गल को स्थिति यानी स्थिरता करने में यह अधर्मास्तिकाय सहायक है । आकाश का लक्षण अवगाहना (समावेश)है। वहबाको के अन्य द्रव्यों को अपने में समाविष यानी अवकाशदान करता है। द्रव्य कहाँ रहेगा ? कहां अवगाहना करेगा ? Space में आकाश में । पुद्गल का लक्षण पूर्ति करना व गलना है। यह एक ही द्रव्य ऐसा है कि जिसके अन्दर अपने सजातीय द्रव्य मिलते हैं और अलग भी हो जाते हैं । अन्य सब द्रव्य जीव सहित, अखण्ड रहते हैं। उनमें न कुछ बढ़ता है. न घटता है। तो जगत् में पुद्गल की जोड़ तोड़ कैसी चलती है ? बडे मेरु जैसे में भी पुद्गलों का सड़ना, पड़ना व विध्वंस होना और पूर्ति होना चालू है। जीव का लक्षण चैतन्य है, ज्ञानादि का उपयोग है। वह इसी में होता है, अन्य में नहीं। इसीलिए यही एक चेतन द्रव्य है अन्य सब जड़ द्रव्य है । काल का लक्षण वर्तना है. वह वस्तु में नया पुराना भावी अतीत आदि रूपों का परिवर्तन करता है। वस्तु का
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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