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________________ ( १७५ ) जीव का संसार (केमा है ? )स्वकर्म से निर्मित, जन्मादि जलवाला, कषायरूप पाताल सहित, सैकड़ों व्यसन रूपी जल वर जावों वाला, माहरूपो आवर्त वाला, अति भयानक, अज्ञान पवन से प्रेरित इष्टानिष्ट संयोग वियोग रूप तरंगमाला वाला-अनादि अनंत अशुभ संसार का वितन करे ।। ५६ ।। ५७ ॥ पुन: उसे तैरने के लिए समर्थ, सम्यग् दर्शन रूपो अच्छे बंध वाला, निष्पाप व ज्ञानमय कप्तान वाले चारित्र रूमो महाजहाज का चितन करे ।। ५८ ।। आश्रवनिरोधामक संवर (ढक्कन) से छिद्ररहित किया हुआ, तपरूपी पवन से प्रेरित, अधिक शीघ्र वेग वाला, वैराग्य रूप मार्ग पर चढ़ा हुआ, दुर्ध्यानरूपी तरंगों से क्षोभरहित, महाकीमती शीलांग रूपी रत्नों से भरा हुआ वह महाजहाज है, उस पर आरूढ़ हुए मुनिरूपी व्यापारी शोघ्र निर्विघ्न रूप से मोक्षनगर कैसे पहुंच जाते हैं उसका चिंतन करे ५६ ।। ६० ॥ पुनः उस निर्वाणिनगर में ज्ञानादि तीन रत्नों के विनियोगमय एकांतिक, बाधारहित, स्वाभाविक अनुपम और अक्षय सुख को गिस तरह प्राप्त करते हैं; उसका चिंतन करे ।। ६१ ।। ___ ज्यादा क्या कहें ? जीवादि पदार्थों का विस्तार से सम्पन्न और सर्वनय समूहमय समस्त सिद्धान्त अर्थ का चिंतन करे ॥१२॥ विवेचन : धर्म ध्यान के चौथे प्रकार 'संस्थान विचय' में वीतराग सर्वज्ञ जिनेश्वर भगवंत कथित सिद्धान्त के पदार्थों का विचार करना
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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