SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 146
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १२१ ) सुसमाहिय कर पायम्स अकज्जे कारणमि जयणाए । किरियाकरणं जं ते काइयमाणं भवे जइणो । इस प्रकार की भाषा बोलना, इस प्रकार की नहीं बोलना, ऐसे दशवैकालिक सूत्र के वचनानुसार बोलने वाले को वाचिक ध्यान होता है । तथा हाथ पैर को अच्छी तरह व्यवस्थित रखकर उसे अकार्य में नहीं जोडने वाला और कारण हो तो जयणापूर्वक क्रिया करने वाले यति का यह क्रिया-करण ध्यान है। इससे सूचित होता है कि स्वस्थ वचन योग काययोग भी ध्यान रूप है । इस ग्रंथ में आगे जाकर कहा जायगा कि 'ध्यान' का अर्थ (१) 'ध्ये' चिन्तायाम् (२) 'ध्ये' कायनिरोधे (३) 'ध्ये' अयोगित्वे है। याने एकाग्रचिंतन, कायनिरोध और अयोगिता करण ऐसे अर्थ होते हैं । साथ ही ग्रंथ के अंत में यह भी लिखा है कि मुनिकी सब क्रिया ध्यान रूप ही है। इस तरह से वचनयोग व काययोग ध्यान रूप बनते हैं। यहां एक खास बात समझने की यह है कि ध्यान के योग्य देश के रूप में स्थान मात्र योग का समाधानकारी याने स्वस्थताकारी हो इतना ही काफी नहीं है। किन्तु वह 'जीवोपरोध रहित' भी होना चाहिये । जीवोपरधरहित याने जहां पृथ्वीकायादिजीवों का संघट्टा होता हो, जीवों को परिताप होता हो, इत्यादि जीव विराधनावाला स्थान नहीं होना चाहिये । ध्यान में बैठने से चाहे अपने हाथों जीवों को दुःख न भी पहुंचता हो, किन्तु उस स्थान में जीवों को दूसरों से भी दुःख पहुंचताहो, तो भी वह स्थान ध्यानयोग्य नहीं गिना जायगा। क्योंकि यति के दयापूर्ण हृदय को यह देख कर स्वाभाविक ही उन जीवों के प्रति भाव, दयाद्रता होगी, जिससे चित्त उसमें जाने से प्रस्तुत विषय के ध्यान का भंग होगा।
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy