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________________ ११९ ) जो (तो) जत्थ समाहाणं होज्ज मणो वय काय जोगाणं । भूअोवोहरहिरो सो देसो झायमाणस्स ॥३७॥ ___ अर्थ:- ध्याने करने वाले को जहां मन वचन काया के योगों की स्वस्थता रहे, ऐसा जीवसंघट्टा आदि की विराधन से रहित स्थान योग्य है। नियम नहीं है। मुनि याने जीव अजीव आदि तत्त्वों का मनन करने वाले; इन प्रत्येक तत्त्वों का भिन्न भिन्न स्वरूप, उनके गुण-दोष, अपाय-उपाय, हेय ज्ञेय-उपादेयता आदि पर गम्भीर चिंतन मनन परिणमन करके ऐसा आत्म-समन्वय करने वाले हुए हों कि चाहे जिस स्थान पर उनका ध्यान अखण्ड चल सकता है। अलबत्ता वे सुनिश्चल मन वाले होने चाहिये। मन धर्मध्यान में अत्यन्त निष्कम्प होना चाहिये । तभी उनके लिए स्थान का नियम नहीं। ध्यान लोगों से भरे गांव में करें, शून्य घर में करें या जगल में करें, पर ध्यान में फर्क नहीं पड़ता। यहां 'गांव' शब्द से एक जातीयग्रहण में तज्जातीय का ग्रहण हो इस न्याय से नगर, बन्दर, कस्बा, उद्यान आदि समझ लेना चाहिये। वे सभी जगह ध्यान कर सकते हैं। क्योंकि उन्हें तो सभी स्थानों के प्रति समभाव है। उदा० भरा हुआ गांव उन्हें प्रतिकूल नहीं होता और शून्य घर ही उन्हें अनुकूल हो ऐसा नहीं। इसका कारण है कि वे अभ्यस्त योगी तत्त्वपरिणत हो चुके हैं । तत्त्व परिण ति आई अर्थात् अन्तर में (मन में) तत्त्वपरिणत हो गया। फिर तो गांव या जंगल सभी उनके लक्ष या ध्यान से बाहर रहता है और किसी भी विशेषता से रहित होने से उनके मन समान है।
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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