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________________ ( १०९ ) चंचल बनते हैं, तो फिर ध्यान में स्थिरता या एकाग्रता कहां से टिकेगी ? अतः ऐसे भयों को छोड़कर निर्भयता का अभ्यास करना भी जरूरी है। निर्भयता के अभ्यास के लिए बाह्य वस्तुओं के बारे में इस तरह सोचना चाहिये (१) यह सब भाग्य के अनुसार होता है। भाग्यानुसार चलता है, भाग्य अनुसार टिवे मा या टूटेगा। इसमें कुछ भी फर्क नहीं पड़ेगा। तो फिर बेकार भय क्यों रखना। (२) पुनः भयभीत होने में मेग सत्त्व घटता है; सत्त्व का नाश एक भयंकर हानि है । सत्त्व से ही अनेक गुणों का विकास और साधनाओं में आगे बढ़ा जाता हैं। बेकार का भय रख कर ऐसे सत्त्ब को क्यों घटने दिया जाय ?' इस तरह सोच कर निर्भयता का अभ्यास किया जाय । दूसरी तरफ आत्मा की उन्नति के भय के बारे में (१) विघ्न के भय को रोकने के लिए विघ्न के कारणों को रोकना चाहिये। उदा० प्रवासी को तीन प्रकार के विघ्न आते हैं; १. कांटे लगे, २. बुखार आदि आवे, ३. दिशाभ्रम हो । तो (१) जूतों से कांटे नहीं लगें इससे कांटों के लगने से मुसाफरी नहीं रुकेगी। वैसे ही (२) आहारविहार पर अंकुश रखे, अत: बुखार आदि रोग नहीं आवे। इसी तरह (३) रक्षण, मागदर्शक या स्पष्ट प्रकार के चिन्हों का पता हो तो दिशामोह नहीं होगा। बस धर्मसाधन मोक्षमार्ग के प्रवास में भी इसी तरह (१) कांटों जैसे विघ्न याने भूख, तृषा, ठंडी, गरमी, आक्रोश सत्कार आदि परिसह खड़े होना सम्भव है; परन्तु पहले से ही परिसहों को समता से सहन न करने का अभ्यास किया हो, उस पर तात्त्विक विचारधारा निश्चित कर रखी हो-तथा अवसर पर उसका उपयोग किया जाता रहे, तो इस भूख आदि से साधना रुके नहीं। इसी तरह २ हितमित आहार विहार हो तो बुखार आदि रोगों के विघ्न नहीं आवे; और (३) साधना को तात्त्विक रूप में समझ कर रखा हो
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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