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________________ ( १०६ ) ३. निर्भयता। ४. निराशंसता। ५. तथाविध क्रोधादि रहितता। १. सुविदित जगत्स्वभाव चराचर जगत के स्वभाव को अच्छी तरह पहचान लिया हो। 'जगन्ति जङ्गमान्याहुर्जगद् ज्ञेयं चराचरम् ।' 'जन्म मरणाय नियतं, वन्धुदुखाय धनमनित्तये ।' तम्नास्ति यन्न विपदे । तथापि लोको निरालोकः ॥' अर्थ:-जिसमें पदार्थ प्रति समय नये नये पर्यायों में जाते रहने से जंगम है, उसे जगत कहते हैं। यह चर तथा अचर दो प्रकार का है। मुक्त जीव आकाश, रत्न प्रभादि पृथ्वी मेरु आदि पर्वत, भवन विमान आदि अचर स्थिर हैं तथा अन्य संसारी जीव, तन धन आदि अस्थिर हैं. चर हैं। .. ऐसे जगत का स्वभाव कैसा? जन्म के पीछे अवश्य मृत्यु है। सम्बन्ध व सगे दुख दायक होते हैं। धन अशांति करवाता है। जगत को ऐसी कोई चीज नहीं है जो आपत्ति के लिए न हो । तब भी खेद इस बात का है कि लोगों को इस बात का भान नहीं है, ध्यान नहीं है । यदि उन्हें भान होता तो जन्म, सगे सम्बन्धी तथा धन से अर्थात् काया कुटुम्ब व कंचन से उन्हें वैराग्य हो जाता। काया का जन्म हुआ अतः मृत्यु होना ही है और वह रंग-राग से भयंकर परलोक का सर्जन करती है। तो फिर उमकी इतनी अधिक माया र सार-संभाल क्यों ? मौत नहीं आती तब तक उसके पास से भारी त्याग, तप, साधना करवा लेना चाहिये। इसके बदले वह रंग, राग भोग तथा आलस व आराम में खतम हो कर एक दिन यकायक ही नष्ट हो जाय तो वह कितना दुःखद है।
SR No.022131
Book TitleDhyan Shatak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherDivyadarshan Karyalay
Publication Year1974
Total Pages330
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size18 MB
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