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________________ ५२ पञ्चसप्ततिशतस्थानचतुष्पदी. [गुजराती भाषामां प्रमार्जना संयम (वस्त्र, पात्रादिनी पडिलेहन उपयोग पूर्वक करवी ) १४ परिष्ठापना संयम (विधि सहित आहारादि परठवो) १५ मन संयम (खोटो विचार न करवो) १६ वचन संयम (पापकारी भाषा न बोलवी ) १७ काया संयम ( उपयोग पूर्वक गमनाऽऽगमन करवू ) ए बन्ने प्रकारना संयम सर्व तीर्थंकरोना शासनमा समान जाणवा. एमां कोइने कोइ जातनो भेद होतो नथी. १४४-१४५ धर्मप्ररूपणा अने वस्त्रवर्ण दान १, शील २, तप ३, भावना ४ ए चार प्रकारनो, अथवा श्रुतधर्म अने चारित्रधर्म ए बे प्रकारनो धर्म सर्व तीर्थकर सरखी रीते प्ररूपण करे छे. प्रथम अने अन्तिम तीर्थपतिना शासनमां वर्णथी सकेद, मूल्यथी एक आंकना मूल्यवाला तथा प्रमाणथी ओघनियुक्तिमां बताव्या प्रमाणवालां वस्त्रज धारण करवा कह्यां छे, अने शेष जिनेश्वरोना शासनमा वर्ण के प्रमाणनो काइ नियम नथी, यथाप्राप्त ( जेवां मले तेवां) ग्रहण कर लिये छ. निर्दोषताशी नववर्ण लगण पचास स्थानकोवडे शोभायमान यमितिकदीमा चोथो उल्लास पूर्ण थयो.
SR No.022123
Book TitlePanchsaptati Shatsthan Chatushpadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendrasuri, Yatindravijay
PublisherRatanchand Hajarimal Kasturchandji Porwad Jain
Publication Year1935
Total Pages202
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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