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________________ १३८ श्रीपञ्चसप्ततिशतस्थानचतुष्पदी. [पंचमअथवा दोय प्रकारनो, गृहि मुनि क्रिया स्वरूप । भाव सहित सेवे भविक, मूंदे भवभयकूप ॥ ४६७ ॥ १६५ पूर्वप्रवृत्ति काल असंख्य काल पूरव रह्या, क्रम सतरेना जाण । संख्यकाल षद् जिनतणा, वीर सहस वासाण ॥ ४६८॥ १६६-१६७ पूर्वविच्छेद अने शेषश्रुतप्रवृत्ति काल पर्वनो विच्छेद काल. ऋषभथी कंथ जाव । असंख्य अरथी पार्श्व लग, संख्यकाले अभाव ॥ ४६९ ॥ वीस सहस वरसां लगे, पूर्वविच्छेद विचार । वीरशासन में जानिये, शेष श्रुत आधार ॥ ४७० ॥ शासन वरते जिहाँ लगे, सहु जिनेन्द्रनो जाव । शेष श्रुत रहे .तिहाँ लगे, पार्श्वने छेद अभाव ॥ ४७१ ॥ पूरव रह्या जिम छेद छे, पिण विशेष ए जाण । वीस सहस वरसां लगे, शासन वीर प्रमाण ॥ ४७२ ॥ केड कहे विच्छेदनो, पारसने नहिं होय । शेषश्रुत तीरथ लगण, वरते साधु विलोय ॥४७३ ॥ शेषश्रुत विच्छेदथी, अच्छेरो इह जान । सुरिराजेन्द्र भाषे इसो, धारी सूत्र प्रमान ॥ ४७४ ।।
SR No.022123
Book TitlePanchsaptati Shatsthan Chatushpadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendrasuri, Yatindravijay
PublisherRatanchand Hajarimal Kasturchandji Porwad Jain
Publication Year1935
Total Pages202
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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