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________________ १२६ श्रीपञ्चसप्ततिशतस्थानचतुष्पदी. _ [चतुर्थउगणीस लाख अरु सहस छियासी, इकावन ऊपर धरो। इक इक जिना करण एसे, कह्या सात धडो संकरो ॥ एहने मुनिसंख्य माहेसुं शोधिये शेषहु जे रहे । सामान्यमुनि एह संख्या, सूरिराजेन्द्र मुख कहे ।३९४। १२६-१२८ अनुत्तरोपपातिकमुनि, प्रकीर्णकग्रन्थ अने प्रत्येकबुद्धमुनि संख्यासहस बावीस रु नवशत, ऋषभने सोल हजार । नेमी बारसो पार्श्वने, आठसो वीर विचार ॥ ३९५ ॥ अनुत्तरोपपाति चारने, शेष जिन अप्रसिद्ध । मुनि जेताही प्रकीर्णक, सिद्धान्ते परसिद्ध ॥ ३९६ ॥ निज निज शिष्य प्रमाणसुं, प्रत्येकबुद्ध पण जान । गुणेकरी सहु सारिखा, लेश न खींचातान ॥३९७ ॥ १२९ जिनेश्वरोना आदेशनी संख्याआदेश पांचसो वीरने, शेषने जाण अनेक । आदेश अरथ एम छे, जाणे श्रुतधर छेग ॥ ३९८ ॥ सूत्रमें जे वद्या नहीं, भाष्या ज्ञानी जेह । कुरुड कुरुड नरके गया, नरके मुनि किम तेह ॥३९९॥ वीर अंगुष्ठे कंपियो, मेरु मरुदेवी सिद्ध । अनंतकायसुं आयने, कदलीसुं परसिद्ध ॥ ४०० ॥
SR No.022123
Book TitlePanchsaptati Shatsthan Chatushpadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendrasuri, Yatindravijay
PublisherRatanchand Hajarimal Kasturchandji Porwad Jain
Publication Year1935
Total Pages202
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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