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________________ १२२ श्रीपञ्चसप्ततिशतस्थानचतुष्पदी. [ चतुर्थ उपरि सहस्र इम जानिये, ऋषभादि लख धार । चोपन पैंतालीस अरु, छत्तिस सगविस सार ॥ ३५९ ॥ सोल पण तिराणुं इकाणुं, इकोतर वली जान । अट्ठावन अडताली अरु, छत्तीस चउविस मान ॥ ३६० ॥ चौद तेर तिराणुं इकासि, बहोतर सित्तर होय । पचास अडताली वली, छत्तीस सुंदर जोय || ३६१ ॥ उनचालीस अढार अरु, सर्वसंख्या इम मान । एक कोटि पांच लाख, सहस अड़तीस जान || ३६२ ॥ ११९ जिनेश्वरोना केवलज्ञानि मुनियोनी संख्याकेवलनाणी जिनतणा, क्रमसे वीस हजार । वीस वा बावीस अजित, पनरे चौदे धार ॥ ३६३ ॥ तेर बार इग्यार दश, साठि - सात ने सात | साढिछ अरु साढिपांच, पण ए सहस सुजात ॥ ३६४ ॥ पेंताली - शत तियालि-शत, बत्तीस वा बावीस । अठावीस दुवीस अढार, सोले पनर जगीस || ३६५ ॥ दशसो सातसो ए सवि, इक लख ऊपर धार । सहस छियोतर एकसो, सब केवली परिवार ॥ ३६६ ॥ १२० जिनेश्वरोना मनः पर्यवज्ञानी मुनियोनी संख्या - मनपर्यवज्ञानी थया, तीर्थंकरना जेह । ऋषभादि क्रमसे कहुं, जेती संख्या तेह ॥ ३६७ ॥
SR No.022123
Book TitlePanchsaptati Shatsthan Chatushpadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendrasuri, Yatindravijay
PublisherRatanchand Hajarimal Kasturchandji Porwad Jain
Publication Year1935
Total Pages202
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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