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________________ -उल्लास] श्रीपञ्चसप्ततिशतस्थानचतुष्पदी. १२१ सुविधि जिनवरथी, अनन्त लगे छ एम । लाख ति ति इक इक, इक इक उपरी नेम । सहस असी असी, वीस षद् तीन शत आठ । एहवो पिण दीसे, ग्रन्थांतर में पाठ ॥३५१॥ ११७ जिनेश्वरोना श्रावकनी संख्यातीनलख श्रावक ऋषभने, अजित शांति परियंत । दो लख कुंथु वीरलग, एक लख जानो तंत ॥ ३५२ ॥ लख ऊपर कहुं सहस क्रम, चोवीस जिननुं सार। पण अठाणुं तिराणुं अशी, इकासि छियंतर धार॥ ३५३ ॥ सत्तावन पचास वली, उगणी नव्यासि जाण । उनासी पनर अड छ चऊ. चालिस मतंतर माण ॥ ३५४ ॥ नेउ उनासी चोरासी, तिरासि बहोतर होय । सित्तर एकोन-सप्तति, चोसठ उनसठ जोय ॥ ३५५ ॥ सर्वाङ्क संख्या मेलतां, लाख पचपन जान । अडतालीस सहस अधिक, सर्व श्राद्धनो मान ॥ ३५६ ।। ११८ जिनेश्वरोनी श्राविकाओनी संख्याऋषभादि संभव लगे, पण पण छे लख धार । अभिनंदन सुमति पाने, पांच लाख निरधार ॥३५७॥ सुपार्श्वथी श्रीधर्म लग, लाख चार चित लाय । शांतिनाथ से वीर लग, त्रिलख श्राद्धी थाय ॥ ३५८ ॥ ८४००००
SR No.022123
Book TitlePanchsaptati Shatsthan Chatushpadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendrasuri, Yatindravijay
PublisherRatanchand Hajarimal Kasturchandji Porwad Jain
Publication Year1935
Total Pages202
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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