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________________ ११४ श्रीपञ्चसप्ततिशतस्थानचतुष्पदी. चितुर्थसाहसोपेत कारक रु, काल वचनादि जुत्त । स्थापितविशेषोदार हु, अनेक जाति विचित्त ॥३१५॥ पर मर्मोद्घाटन रहित, विभ्रमादि निर्दोष । विलंब व्युच्छेद खेदता, रहित ए गुण पोष ॥३१६॥ अद्भुत अत्युत्सुक विना, धर्मार्थयुत तेंतीस । प्रशंसनीय ने चित्रकर, वाणिगुण पेंतीस ॥३१७॥ १०२ जिनेश्वरोना आठ प्रातिहार्यजिनराज तनुथी बारे गुणो, वृक्ष किंकिल्लि जाणिये। अपर नामें अशोक तरूवर, कुसुमवृष्टि पहिचाणिये ॥ दिव्यध्वनि सित चामराऽऽसन, भावलय भेरी सुर करे । शिर छत्र जिनना प्रातिहारज, सूरिराजेन्द्र सुपद वरे ३१८ १०३ जिनेश्वरोनी तीर्थ-स्थापनासंघ पेलो गणधर, श्रुत ए तीरथ जान । एहनी उत्पत्ति, जिन तेवीसने मान ॥ पहिले समोसरणे, वीरने बीजे वखान । सूरिराजेन्द्र वंदे, तीरथ ए गुणखान ॥३१९ ॥ १ कोश अडतालि प्रथमजिन, ते पछि गणिये एम। बे बे कोश हीन कर, नेमि लगन ए नेम ॥ १ ॥ पांच गाउ श्रीपार्श्वनो, चार कोश महावीर । चार निकायदेव रचित, देखत नाशे पीर ॥२॥
SR No.022123
Book TitlePanchsaptati Shatsthan Chatushpadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendrasuri, Yatindravijay
PublisherRatanchand Hajarimal Kasturchandji Porwad Jain
Publication Year1935
Total Pages202
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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