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________________ उल्लास ] श्रीपञ्चसप्ततिशतस्थानचतुष्पदी. १०७ करपात्रे भोजन ए चोथुं, गृही विनय न करवो जी । ए पांचो अभिग्रह वीरप्रभुजी, थिर करि मन धरिवो जी २५९ ८५ जिनेश्वरोनी विहारभूमि - ऋषभ नेमि पार्श्व वीरनो, अनार्यदेश विहार । शेष वीस जिनरायनो, आर्यदेश संभार ८६ जिनेश्वरोनो छद्मस्थकाल मान छद्मस्थकाल सहु जिन तणो, क्रमसे लीजे धार । वरस सहस बारे चौद, अढार वीश विचार ॥ २६१ ॥ मास षट् नव तीन चऊ, तीन दोय इक दोय । वर्ष तीन दो इक सोल, तीन अहोरति होय ॥ २६२ ॥ ॥ २६० ॥ मास इग्यारे नव दिना - चोपन चुलसी जान | साढी - बारे पक्ष अधिक, वरस वीर पेचान ॥ २६३ ॥ ८७ श्री वीरप्रभुनी तपःसंख्या ॥ २६४ ॥ उग्र तपोकर्म तीर्थपा, विशेषे वर्द्धमान | बहुकर्म हवा भणी, तेहनो कहुं प्रमान दीक्षा दिन उपवास में, छमासी थई एक । पणदिन ऊनी दूसरी, नव चउमासी लेख ॥ २६५ ॥ तीनमासी दोय जानिये, अढ़ि-मासी वलि दोय । दोमासी पद मानिये, दो डोढमासी होय ॥ २६६ ॥
SR No.022123
Book TitlePanchsaptati Shatsthan Chatushpadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendrasuri, Yatindravijay
PublisherRatanchand Hajarimal Kasturchandji Porwad Jain
Publication Year1935
Total Pages202
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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