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________________ १०६ श्रीपञ्चसप्ततिशतस्थानचतुष्पदी. [ तृतीय ८१-८२ वसुधारा वृष्टि अने पंच दिव्योद्भवसोनइया तणी वृष्टि, साढ़ी बारे कोड़ें । उत्कृष्टी ए मानिये, सुर कृत होडा होड़ ॥२५२ ॥ साढी बारे लख जघन, लीजे मनमां धार । करे पारणो जिन जिहाँ, होवे त्यां निरधार ॥ २५३ ॥ इमहिज पंचदिव्य प्रगट, जल कुसुमतणी वृष्टि । वसुधारा ने चेलोत्क्षेप, सुरदुन्दुभि तणि सृष्टि ॥२५४॥ अहोदाननी घोषणा, जय जयकार समेत । जिनवर दान जिहां लिये, थावे अचरिज देत ॥२५५॥ ८३ जिनेश्वरोनो उत्कृष्ट तपमास बारे तप ऋषभने, छमासी तप वीर । अडमासी बावीसने, तप उत्कृष्ट सधीर ॥२५६ ॥ ८४ जिनेश्वरोना अभिग्रहद्रव्य क्षेत्र काल भाव अभिग्रह, सर्व जिणंदने जाणोजी । वीर प्रभुने पांचए अधिका, तेहना नाम वखाणो जी ।२५७। अप्रीतिमयस्थानक वसवू, नहिं हवे लो दूजो जी। काया वोसिरावीने रहेg, मौनपणे ए तीजोजी ॥२५८॥ १ इकलख तीस सहस दुशत, मण तेर सेरज जान । टांक चोवीस ऊपरे, तोल्यां वजन प्रमान ॥ १ ॥
SR No.022123
Book TitlePanchsaptati Shatsthan Chatushpadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendrasuri, Yatindravijay
PublisherRatanchand Hajarimal Kasturchandji Porwad Jain
Publication Year1935
Total Pages202
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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