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________________ १०४ श्रीपञ्चसप्ततिशतस्थानचतुष्पदी. सिद्धार्थ वन में ऋषभ, नीलगुहा सुव्रत । विहारगेह वासुपूज्य, वप्रगा धर्म सुवृत्त ॥ २३५ ।। [ तृतीय आश्रमपद में पार्श्वजिन, ज्ञातखंडवन वीर । सहस्रावने शेष जिन, लीनो व्रत तजि पीर ॥ २३६ ॥ चउमुष्टि ऋषभदेवनी, पंचमुष्टि जिन शेष । लोंच कर्यां पछी वलि, न रहे लोंच किलेश ॥२३७॥ ७४-७५ देवदूष्य वस्त्र अने तेनी स्थिति-— लाख मूल्यनो देवदृष्य शक्र ठवे जिन खंध । सदा तेवीस जिनने रहे, सचेल एह मुणिंद ॥ २३८ ॥ वर्ष एक अधिको धरे, अनुकंपा लहि वीर । आयो दयालुए विप्रने, राख्यो न पासे चीर ॥२३९॥ ७६-७७ पारणाद्रव्य अने पारणासमय ऋषभ इक्षुरस पारणे, परमान्ने तेवीस । प्रथम पारणे ए सही, जाणो विश्वा वीस ॥ २४० ॥ वरसे ॠषभने पारणं, दिन दूजे जिन शेष । परीषहशूरा जानिये, अडग अमल हमेस ॥ २४१ ॥ ७८ जिनेश्वरोना पारणा नगर जिनवर पारणा ज्यां कर्या, नगर अनुक्रम एह । हस्तिनापुर ने अयोध्या, श्रावस्ती ससनेह ॥ २४२ ॥
SR No.022123
Book TitlePanchsaptati Shatsthan Chatushpadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendrasuri, Yatindravijay
PublisherRatanchand Hajarimal Kasturchandji Porwad Jain
Publication Year1935
Total Pages202
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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