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________________ उल्लास ] श्री पञ्चसप्ततिशतस्थानचतुष्पदी. जयंती अपराजिता, देवकुरु जगञ्जान | द्वारवती विशाला अरु, चन्द्रप्रभा सुख मान ॥ २२८ ॥ चोवीसे जिनवर तणी, दीक्षा शिबिका जाण । देव दानव उपाडे थके, संयम ले जग भाण ॥ २२९ ॥ ६७ जिनेश्वरोनो दीक्षा-परिवार 19 दीक्षा चार सहस्र के साथे ऋषभ जिणिंद । वासुपूज्य छसो संयुत, तीनसो मेलि मुणिंद ॥ २३० ॥ पार्श्व तीनसो संगमें, वीर एकाकी जान । शेष जिन एक सहस्र से, व्रत परिवार बखान ॥२३१॥ ६८ जिनेश्वरोनी दीक्षा नगरी - १०३ नेमि व्रतनी द्वारिका, नयरी कारण होय । शेष जिनजी व्रत ग्रह्मो, जन्म नगरिमां जोय ॥ २३२ ॥ ६९-७३ दीक्षानो समय, ज्ञान, वृक्ष, वन अने लोंच पूर्वाह्न दीक्षा लहे, सुमति श्रेयांस नेमि । मल्ली पार्श्व शेष सहु जिन, पश्चिमाहें लेमि ॥ २३३ ॥ अशोकवृक्ष तले सहू, जिननी दीक्षा जाण । दीक्षा सहु जिनवर ग्रहे, मनपर्यव तब नाण ॥ २३४॥ १ - त्रिशत नर त्रिशत कुमरी, साथे दीक्षा लीध । ग्रन्थांतरे इम कह्यो, वाचनान्तर प्रसीध ॥
SR No.022123
Book TitlePanchsaptati Shatsthan Chatushpadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendrasuri, Yatindravijay
PublisherRatanchand Hajarimal Kasturchandji Porwad Jain
Publication Year1935
Total Pages202
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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