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________________ [द्वितीय पञ्चसप्ततिशतस्थानचतुष्पदी. २६ जिनेश्वरोनी नकुलादि योनि सिद्धचक्रपद वंदो रे भविका, ए राह जिनवर योनि वखाणो रे भविका जि० ॥ टेर ॥ योनि नकुल श्रीप्रथमजिनेश्वर, वासुपूज्य नमि मल्लि । एत्रण जिननी घोटक योनी,संभव अजित अहि वल्लि रे भ०१ बिलाडो अभिनंदन जाणो, सुमति मूषक गो वीर । चंद्र हरिण सुविधिजिन श्वान, दशमैकादश कपि धीर रे भ०२ मुनिसुव्रतने पण वानर योनी, विमल धर्म ने छाग । कुंथु छाग अर शांति अनंत, गज ए तीनने लाग रे ॥भ०॥३॥ पद्म सुपास ने नेमि पारस, योनि एहनी व्याघ्र । सूरिराजेन्द्रजी सांचो भाषे, जोइ लेजो ग्रन्थान रे ।।भ०॥४॥ २७ जिनेश्वरोना गरुडादि वर्ग अजब महेलने अजब झरोखे, ए राह ऋषभ अजित ने श्रीअभिनंदन, अनंतनाथ अरजिनजी। वर्गए पांचनोगरुड वखान्यो. मृगपति चंद्र भगवनजी॥२॥ ___ भवि तमे मानो, ए छे शास्त्र प्रमाणो भ० ॥ टेर ॥ संभव सुमति सुपार्श्व जिनेश्वर, सुविधि शीतल श्रीशांति । वर्ग ए सातनुं मेषज लहिये, मेटी मननी भ्रांति ॥०॥२॥
SR No.022123
Book TitlePanchsaptati Shatsthan Chatushpadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendrasuri, Yatindravijay
PublisherRatanchand Hajarimal Kasturchandji Porwad Jain
Publication Year1935
Total Pages202
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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