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________________ ७८ श्रीपञ्चसप्ततिशतस्थानचतुष्पदी. [प्रथम ११ जिननामकर्मोपार्जन हेतु अरिहंत सिद्ध प्रवचन गुरु, स्थविर बहुश्रुत जान । तपस्वी ज्ञान दर्शन अरु, विनयाऽऽवश्यक मान ॥५२॥ अखंडशील क्रियाशुद्ध, क्षणलवतप ने त्याग । वैयावृत्य समाधिचऊ, अपूर्वज्ञान से लाग ॥५३ ॥ श्रुतभक्ति प्रवचनप्रभाव, तीर्थकरण ए बीस । प्रथम चरम जिन फरसिया, शेष इगदो ति बीस ॥५४॥ १२ जिनेश्वरोना पूर्वभवना स्वर्गसर्वार्थसिद्धथी ऋषभ, शांति कुंथु अरनाथ । अजित चन्द्र ने धर्मजिन, विजयविमानसुंथात ॥५५॥ संभव मुनि-ग्रैवेयथी, पद्म नवमथी जोय । सुपार्श्व छट्ठाथी थया, श्रेयांस अच्युत होय ॥५६॥ तुरिय सुमति मल्लिप्रभू, जयंतथी आवंत । सुविधि आनत स्वर्गथी, जिनपद पाम्या संत ॥ ५७ ॥ मुनिसुव्रत नेमी विभू, अपराजित अवतार । सहस्रार स्वर्गथी चवी, विमलजिन जयकार ॥ ५८ ॥ शीतल वासुपूज्य नमी, पार्श्व वीर अनंत । प्राणत स्वर्गसुं आवीया, अवनीतल जयवंत ॥५९ ॥
SR No.022123
Book TitlePanchsaptati Shatsthan Chatushpadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendrasuri, Yatindravijay
PublisherRatanchand Hajarimal Kasturchandji Porwad Jain
Publication Year1935
Total Pages202
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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