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________________ । पूवभवसूरिविरइअ-नाणासाअणपभाव दुम्मेहो; नियनामं झायंतो, मासतुसो केवली जाओ॥९॥ _अर्थः-पूर्व भवे आचार्यपणे करेली ज्ञाननी आशातनाना प्रभावथी बुद्धिहीन थयेला 'मा' तुम मुनि निज नामने | ध्याता छता कोइनी उपर गग के रीस न करवारुप गुरु महाराजाए बतावेला परमार्थ सामे दृष्टि गवी म्हेन) घाति | कर्मनो क्षय करी (शुद्ध निर्मळ भावथी) केवळज्ञान पाम्या. ॥९॥ हथिमि समारुढा, रिद्धिं दण उसभसामिस्स; तख्खण सुहझाणेणं, मरुदेवी सामिणी सिद्धा॥१०॥ अर्थ:-हाथीना स्कंध उपर आरुद थयेला मरुदेवीमाता ऋषभदेव स्वमीनी ऋद्धि-सिद्धि देखीने तत्काळ शुम धानथी अंतकृत् केवळी थइ मोक्षपद पाम्या. ॥ १० ॥ पडिजागरमाणीए, जंघाबलखीण मनिआपुत्तं; संपत्तकेवलाए, नमो नमो पुप्फचलाए॥११॥ अर्थः-जंघावळ जेनुं क्षीण थयु छे एवा अणिकापुत्र आचार्यनी सेवा (उचित वैयावच्च ) करता जेने केवळज्ञान प्राप्त थयुं ते पुष्पचूला साध्वीने पुनःपुनः नमस्कार हो ! ॥ ११ ॥ पन्नरसयतावसाणं, गोअमनामेण दिनदिख्खाणं;
SR No.022111
Book TitleKulak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalabhai Kakalbhai
PublisherBalabhai Kakalbhai
Publication Year1915
Total Pages112
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size10 MB
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