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________________ ( ७ ) यह है कि सर्वत्र देवता सहायक नहीं होता, और उनकी चारित्र वृत्ति क्षमा गुण अति प्रशंसनीय था, इस लिये ऐसे गुणवाले तो बिना रूप भी स्व पर को तार सक्ते हैं और ज्ञानी गुरु कुरूप को भी धर्म देते हैं परंतु विकलांग लंगड़ा, अंधा, रोगी, अशक्त चाहे तो भी संपूर्ण धर्म नहीं पा सक्ला, जैसे उ. त्तम फल का पेड़ चाहिये तो बीज उत्तम जमीन में ही वोना चाहिये तीर्थंकर चक्रवर्ती बलदेव वासुदेव वगैरह माननीय पुरुष जन्म से ही अधिक रूपवान् ही होते हैं ऐसे ही धर्म प्रभावक पुरुष आचार्य वा साधु वा श्रावक भी जन्म से ही सुंदर होते हैं गुरुके पास जाते ही बे अपनी मुख मुद्रा से गुरु को प्रसन्न कर देते हैं । यथा रूपं तथा गुणाः रूप भी एक पुण्य प्रकृति है और पुण्यवान् ही धर्म पा सकता है किसी ने पूर्व भव में रूप का मद किया हो और पीछे पश्चताप किया हो वो ही कुरूप में दूसरे भब में धर्म पा सकता है इसलिये रूप का मद नहीं करना किंतु रूप भी धर्म साधन में सहायक होवे तो अति प्रशंसनीय है । वज्र स्वामी का चरित्र. वजू स्वमी बड़े रूपबान् थे उन्हों ने दक्षा ली और जहां बिहार करके जाते थे बहां ही उनकी महिमा होती थी एक कन्या तो साध्वीयों के पास उनके गुणों की प्रशंसा सुनकर प्रतिज्ञा कर बैठी कि उनके साथ ही बिवाह करूंगी वो लड़की बड़ी हो जाने से और वज्र स्वामी का पता न लगने से बाप ने उसे समझाया कि बेटी ऐसी हठ करना तुझे योग्य नहीं युवति के युवावस्था में बाप के घर रहने से इज्जत घटती है किसीके साथ शादी करले ! पुत्री ने कहा हे तात ! ऐसा नहीं हो सक्ता कि मैं बज्र स्वामी को छोड़ दूसरे से शादी करूं कर्म संबंध से वज्र स्वामी आगये बाप ने कन्या और करोड़ों का द्रव्य ले जाकर उनसे कहा हे वज्र स्वामी ! जगत में पुण्य वृक्ष के फल उसी भव में खाने वाले आप ही जगत पूज्य अद्वितीय पुरुष हैं कि देव कन्या और लक्ष्मी देने को मैं आया हूं आप शीघ्र स्वीकार करें वज्र स्वामी ने स्थिर चित्त से कन्या और उसके पिता को संसार की असारता समझा
SR No.022110
Book TitleDharmratna Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyamuni
PublisherDharsi Gulabchand Sanghani
Publication Year1916
Total Pages78
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size6 MB
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