SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 8
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नाश करता है, मुझे भी याद है कि एक समय तेरे पिता ने अज का अर्थ पुराणे व्रीहि अनाज ही किया था, इसलिये नारद के पास क्षमा मांगले, परंतु हठी पर्वत नहीं मानता था, जिससे पुत्र की रक्षा की खातिर माता ने एकांत में जाकर वसु राजा को समझाया और गुरु पुत्र की जीभ बचाने को कहा वसु बचनमें आगया राज्य सभामें पर्वत और नारदने आकर अपनी बात सुनाकरन्याय चाहा तव वसुने झूठाही कहदिया कि अजका अर्थ बकरा कहाथा नजदीक में जो रहे हुए देव थे उनको यह बात अच्छी न लगने से उन्होंने उस वसु राजा को जमीन पर गिरा कर मार डाला, नारद की जय हुई। पर्वतका लोगों ने बहुत तिरस्कार किया वहां से निकल कर वो मांस भक्षण के स्वादु ब्राह्मणों को मिलकर पवित्र वेदों में हिंसामय स्मृतियें बढ़ाकर हजारों जीवों की हिंसा का रास्ता बताकर नर्क में गया. इस दृष्टांत से यह हित शिक्षा दी है कि जो मंद बुद्धि हैं वे आप सत्य बात जो गंभीर आशय की है बो नहीं समझ सक्ने और अपनी अज्ञानता से अर्थ का अनर्थ कर भोले जीवों को फंसाकर दुर्गति में जाते हैं, इसलिये धर्म योग्य पुरुष गंभीर और तीक्ष्ण बुद्धि वाला समयज्ञ होना चाहिये, यह श्रावक का प्रथम गुण है श्रावक का दूसरा गुण. पुरुष वा स्त्री रूपवान् होना चाहिये अर्थात् शरीर के अंग उपांग संपूर्ण होना चाहिये, पांच इंद्रिय पूरी होना चाहिये शरीर बंधारण यथा योग्य सुंदर होना चाहिये ऐसा पुरुष धर्म पाकर अनेक जीवों का तारने वाला प्रभाविक हो सक्ता है । यदि कदापि कोई कुरूप हो वो विकलांग वा विकल इंद्रिय बाला हो तो भी धर्म तो पा सके किंतु साधु पना नहीं पा सके अथवा कुरूप होवे तो उन्नति नहीं कर सक्ता, लोगों में प्रभाव नहीं पड़ता, अथवा शठ पुरुष उसकी हांसी कर धर्म की निंदा करेंगे, अथवा खुद साधु गुस्से होकर टंटा करके जैन धर्म की हीलना करावेगा और वजू ऋषभ नाराच संघयण बिना मुक्ति भी नहीं हो सकी। यहां पर कुरूप संबंधी हरि केशी मुनि का दृष्टांत देकर कोई शंका करेगा कि बे रूपवान् नहीं थे तो भी वे पूजनीक क्यों हुए ? उसका समाधान :
SR No.022110
Book TitleDharmratna Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyamuni
PublisherDharsi Gulabchand Sanghani
Publication Year1916
Total Pages78
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy