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________________ (२२) होने से अपने निर्वाह के लिये बन में जाकर जमीनमें से कंद खोदकर लाना पडता था, जमीन बोना पडता था, बगीचे में पानी डालना पड़ता था पेड़ों को काटने पडते थे वो देखकर उन हरी बनस्पति में जीव जानकर उन को दुःख होता देखकर वहां से भी घबराया और विचारने लगा कि कब सब जीवों को शांति देने वाला होजाऊं! चतुर्दशी के दिन सबने उपवास किया और बनस्पति हरी को दुःख नहीं देने की सब को आज्ञा हुई उसको अत्यन्त आनन्द हुबा कि ऐसा सदा ही होवे तो बहुत अच्छा, फिर और साधुओं को उस रास्ते से देख कर बोला कि आप आज बन में क्यों जाते हो ! आपने आज सब जीवों को अभयदान दिया है और आप घन में क्यों जाते हो ! एक साधुने कहा हे भद्रक ! हम साधु हैं हम बन में जाकर हरीयाली वगैरह किसी को दुःख नहीं देते ऐसा सुननेसे उसको बहुत ही आनन्द प्राप्त हुआ फिर वो साधुओं को कह कर उनके पास साधु धर्म स्वीकार किया, साधूओं ने उसे कहा साधु तपस्वी की तरह फल नहीं खाते हैं वे तो ग्रहस्थी की दी हुई रोटी ऊपर ही सन्तोषसे दिन गुजारते है. ऐसा प्रत्यक्ष देख कर निरंतर साधुधर्म की प्रशंसा कर सद्गति का भागी हुआ इसलिये श्रावक को प्रथम दयालुता स्वीकार करनी चाहिये पीछे श्रावक के व्रत लेने चाहिये जिससे अर्थ दंड और अनर्थ दंडे का विवेक रख सकेगा, एक पत्ते की जरूरत हो तो दूसरा कदापिन तोड़ना चाहिये क्यों कि इसमें भी जीव हैं और जीवों को दुःख नहीं देना यही धर्म है. कितनेक आदमी जान बूझकर विना समझे हरीपर चलते हैं, पानी में कूदते है। आग लगाते है, काड़ी देकर घास फूस को नलाते हैं उनकी जरा गमत में हजारो छोटे जीवों का नाश होता है.। श्रावक का ११ वा गुण मध्यस्थ सौभ्य दृष्टि। जिसे कोई भी दर्शन धर्म का आग्रह नहीं है वो पुरुष सत्य असत्य जान सक्ता है, और विवेक चक्षु से अनेक मतों का रहस्य जान उस में सार खेंच सका है, और सार खेंच कर गुणों का अनुरागी और दोष का त्यागी हो सत्ता है। और सत्य पक्ष को स्वीकार करके भी दूसरे मत वालो पर टेप
SR No.022110
Book TitleDharmratna Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyamuni
PublisherDharsi Gulabchand Sanghani
Publication Year1916
Total Pages78
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size6 MB
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