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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमाला [विषय-सूची १६. १७२ विषय पृष्ठांक | विषय पृष्ठांक १२-द्वादश अधिकार-उपयोग-कारिका १९४-१९५ सम्यग्दर्शन, ज्ञान, और चारित्र तीनों मिलकर मोक्षके जीवका लक्षण १३४ साधन हैं या एक एक! इस शंकाका समाधान १६२ आठ और चार भेदोंका वस्तृत कथन १३४ सम्यक्त्व वगैरहका आराधन किस प्रकार करना १३-त्रयोदश अधिकार-भाव-कारिका १९६-१९७ । चाहिए ? जीवोंके भावोंका वर्णन , विस्तारसे वर्णन १६४ १३५ औपशमकादि भेदोंका वर्णन १३५ | १६-षोडश अधिकार-शीलके अंग-क० २४३-२४५ द्रव्यात्मा, कषायात्मा, योगात्मा आदि आठ मार्गणाएँ १३७ प्रशमगुणी साधु ही शीलके सम्पूर्ण अंगोंकी साधना द्रव्यात्मा आदिका स्वरूप १३८ करता है १६९ समस्त वस्तुएँ सतू और असत् जाननी चाहिए १४० शीलके अठारह हजार अंग और उनकी उत्पत्तिके , उत्पाद वगैरहका स्वरूप १४३ उपाय १४-चतुर्दश अधिकार-षड् द्रव्य-का० १९७-२२७ १७ -सप्तदश अधिकार-ध्यान-कारिका २४६-२६९ अजीवद्रव्योंका वर्णन १४५ धर्मध्यानके ४ भेदोंका वर्णन १७० पुद्गलद्रव्यके सम्बन्धमें आज्ञाविचय अपाय विचयका स्वरूप औदयिक आदि भावों में धर्म आदि अजीव द्रव्योंके , विपाकविचय संस्थानविचयका स्वरूप १७३ कौनसा भाव होता है। १४६ | परम्परासे धर्मध्यानका फल १७३ लोकस्वरूपका वर्णन १४७ १८-अष्टादश अधिकार-क्षपकश्रेणी-का० २७०-२७१ लोकके तीन भागोंका वर्णन १४८ साधु घातिकर्मके क्षयके एकदेशसे उत्पन्न होनेवाला अधोलोकका वर्णन अनेक ऋद्धियोंसे युक्त आठवाँ अपूर्वकरण क्या आकाश लोकप्रमाण है या सर्वत्र है ? गुणस्थान प्राप्त करता है कौन कौन द्रव्य एक हैं कौन अनेक ? मुनिके अनेक दुर्लभ ऋद्धियाँ प्राप्त होती हैं, द्रव्यों का कार्य १५१ पर वह उसमें ममत्व नहीं रखता १७६ पुद्गलद्रव्यका उपकार १५२ मुनियोंके जो ऋद्धियाँ प्राप्त होती हैं, वह सब ऋद्धि । काल और जीवद्रव्यका उपकार योंसे उत्कृष्ट होती हैं १७६ पुण्य और पाप पदार्थ वर्णन मुनियोंको प्राप्त ऋद्धियोंके सामने इन्द्र अहमिन्द्रोंको आस्रव संवर निरूपण - प्राप्त ऋद्धियाँ तुच्छ हैं १७७ निर्जरा बन्ध और मोक्ष निरूपण १५५ विघ्न करनेवाले क्रोधादि कषायोंका जेता मुनि सम्यग्दर्शनका स्वरूप ऋद्धियोंपर विजय प्राप्त कर यथाख्यातसम्यग्दर्शनके भेद चारित्रको प्राप्त करता है। सम्यग्ज्ञानके भेद १८ मोहनीयकर्मके उन्मूलनकी प्रक्रिया १७८ सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञानमें भेद ५९ मोहनीयकर्मकी २८ प्रकृतियोंका नाश होनेपर मुनि १५-पंचदश अधिकार-चारित्र-का० २२८-२४२ वीतराग हो जाता है १७९ सम्यक्चारित्रका प्रतिपादन १६० क्षपकश्रेणी अवस्थाका वर्णन " के भेदोंका , - १६१ | इसी बातकी स्पष्टता १४९ १५० १५३ १५४ ११७ १८२
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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