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________________ कारिका २८-२९] .. प्रशमरतिप्रकरणम् टीका-माया शाठ्यमनार्जवम् । तच्छीलः तत्स्वभाव आत्मा। यद्यपि न किञ्चिदप्यपराधं करोति मायाजनितम् । संभावितस्य मायावित्वेन पूर्वदृष्टदोषः। सम्प्रति तु विरतस्तहोषात् । तथाप्यात्मीयेनैव दोषेणोपहतो भवति, भुजङ्गवदविश्वास्यः । उद्धृतदंष्ट्रोऽपि भुजङ्गो दूरात् परिहियते लोकेनेति । शुकादयो मायाफलभाजः श्रूयन्त एवेति ॥२८॥ ___अर्थ यद्यपि मायाचारी मनुष्य कुछ अपराध नहीं करता, तथापि अपने दोषसे उपहत-पीड़ित हुआ, सर्पकी तरह किसीका विश्वासपात्र नहीं होता। भावार्थ जो मनुष्य पहले मायाचारी रहा है, बादको यदि वह मायाचारको छोड़ भी दे, तो भी उसकी पहली आदतको स्मरण करके कोई उसका विश्वास नहीं करता है । वह अपने दोषसे ही मारा जाता है, जिस प्रकार साँपका दाँत तोड़ दिये जानेपर भी लोग उससे दूर ही रहते हैं। सर्वविनाशाश्रयिणः सर्वव्यसनैकराजमार्गस्य । लोभस्य को मुखगतः क्षणमपि दुःखान्तरमुपेयात् ॥२९॥ · टीका-सर्वेषां विनाशानामपायानामायश्रयो लोभैः स्थानम् । उपन्नाश्चौरपारदारिकवरसन्तानादयः सर्वे विनाशाश्चौर्यादिनिमित्ताः । सर्वविनाशाश्रयणशीलः सर्वविनाशाश्रयी । सर्वाणि व्यसनानि स्त्रीद्यूतमद्यपानाखेटकवचनदण्डपारुण्यार्थदूषणाख्यानि हिताद् व्यंसयन्ति पुरुषमिति व्यसनानि । तेषामेष लोभकषाय एको राजमार्गः । सर्वाणि व्यसनानि लोभाभिभूतं योग्यमाश्रयमासाद्य विश्राम्यन्ति । राजमार्गो हि द्विजादिभिश्चाण्डालादिभिश्च सर्वैः क्षुद्यते यथा, तथा लोभ एव राजमार्गः सर्वव्यसनैः क्षुद्यते। एवंविधस्य लोभस्य मुखगत-गोचरीभूतः लोभपरिणामभाक् कः खलु दुःखान्तरं सुख-दुःखादन्यत् सुखम् उपेयात्-उपगच्छेत् इति ? प्रतीतिन्यायाद् ग्राह्यं सुखमेवेति । ‘नैव कदाचित्सुखं माप्नुयात् ' इत्यर्थः ॥२९॥ अर्थ-लोभ सब विनाशोंका आधार है, और सब व्यसनोंका एक राज-मार्ग है । लोभके मुखमें गया हुआ कौन मनुष्य क्षण भरके लिए भी सुख पा सकता है ? भावार्थ-सब प्रकारके वैर-विरोध और चोरी वगैरह विनाशोंका घर लोभ ही है। स्त्री, जुवा, शराब पीना, शिकार, वचन और दण्डकी कठोरता, और अर्थदूषण ये सब व्यसन हैं । जो पुरुषको उसके हितसे दूर करते हैं, उन्हें व्यसन कहते हैं । लोभ कषाय उन व्यसनोंका एक राज-मार्ग है । लोभीको पाकर सभी व्यसन उसमें अपना आसन जमाकर बैठ जाते हैं । जिस प्रकार राज-मार्गसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा चाण्डाल वगैरह भी बे-रोकटोक आ-जा सकते हैं, उसी प्रकार लोभरूपी राज-मार्ग सभी व्यसनों के लिए खुला रहता है। ऐसे लोभके मुखमें गया लोभी मनुष्य दुखःके सिवाय और क्या भोग सकता है ? अर्थात् उसे क्षणभरके लिए भी सुख नहीं मिलता है। १ नास्ति पदमिदं ब० प्रतौ । २ लोभस्थानम् मु० । ३ सवें विघ्नाची-ब०। ४ राजमार्गभूतो हिप०।
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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