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________________ २२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [द्वितीयोऽधिकारः, कषायाः टीका-श्रुतम्-आगमः। शीलं च सर्वज्ञप्रणीतागमानुसारि क्रियानुष्ठानम्। उभयमप्येतद् गर्यो भृशं दूषयति-श्रुतवानप्ययमेवं गर्वितः, 'श्रुतेन तु मानत्यागः कार्यः' इति श्रूयते, अयं तु तेनैव मत्तो मानी जातः। नन्वेषं श्रुतवतो दूषणं कृतं भवति, न श्रुतस्य ? उच्यते-श्रुतमपि दूषितं भवति, श्रुतकार्याकरणात् । ज्ञानेन हि मदो निर्मथ्यते, न चासौ निर्मथित इति श्रुतमेव दूषितं भवति । अभेदो वा ज्ञानज्ञानिनोरिति न दोषः । एवं शीलमपि वाच्यम् । विनयरहितत्वो :शील एवायमिति । धर्मार्थकामानां विघ्नकारी मानः। धर्मस्य विनयमूलत्वाद् धर्मविघ्नकारी मानः । तदनुष्ठानशून्यत्वादर्थोपादानस्यापि प्रत्यूहकारी। यतो राजादयः सेवकस्यापि विनयत एव अर्थेन सह योजनं कुर्वन्ति, नेतरस्य । कामस्यापि सम्प्राप्तिर्विनयसम्पन्नस्यैव भवति । कुलयोषितां वेश्यानां च चित्तानुरोधलक्षणया चेष्टया कामी सुखभाग् भवतीति । एवंविधस्य गर्वस्यावकाशं-ढौकनमात्मनि क्षणमात्रमपि मतिमान् को दद्यात् इति ? 'नैव कश्चिद् गुण दोषज्ञो दद्यात्' इत्यर्थः ॥ २७॥ अर्थ-श्रुत, शील, और विनयके दूषणरूप तथा धर्म, अर्थ और कामके विघ्नरूप मानको कौन बुद्धिमान एक मुहूर्तके लिए भी स्थान देगा ? भावार्थ-आगमको श्रुत कहते हैं । और सर्वज्ञप्रणीत आगमके अनुसार आचरण करनेको शील कहते हैं । गर्व इन दोनोंको ही दूषित कर देता है। शास्त्र ज्ञानीको घमंड करते देखकर लोग कहते हैं-- 'यह शास्त्र-ज्ञानी होनेपर भी गर्व करता है । शास्त्र पढ़कर तो मानको छोड़ना चाहिए। ऐसा सुना जाता है। परन्तु यह तो उसीसे अभिमानी बन गया है। शङ्का-यह तो श्रुतवान्का दूषण है न कि श्रुतका ? समाधान-अपना काम न करनेपर श्रुतको भी दोष लगता है। ज्ञानसे मद दूर होता है, किन्तु यहाँ वह दूर नहीं हुआ, अतः इससे श्रुतको दोष लगता है। __अथवा ज्ञान और ज्ञानीमें अभेद होता है, अतः कोई दोष नहीं है। इसी तरह शीलके बारेमें भी जान लेना चाहिए । अर्थात् यदि कोई शीलवान् भी मान करता है, तो सब यही कहते हैं, कि विनयी न होनेसे यह दुःशील ही है । तथा मान, धर्म, अर्थ और काममें विघ्न करता है। धर्मका मूल विनय है, अतः मान धर्ममें विघ्न करता है। अर्थका उपादान कारण धर्म है, और मानी धर्मके शून्य होता है, अतः मान अर्थमें भी विघ्न करनेवाला है। क्योंकि राजा वगैरह सेवककी विनयसे ही प्रसन्न होकर उसे धन देते हैं । कामकी प्राप्ति भी विनयीको ही होती है । कुलस्त्रियों और वेश्याओंके मनके अनुकूल आचरण करनेसे कामीको सुख भोगनेको मिलता है । इस प्रकारके गर्वको अपने अन्दर एक क्षणके लिए भी कौन बुद्धिमान् स्थान देगा ? अर्थात् हानि-लाभको समझनेवाला कोई भी स्थान नहीं देगा। मायाशीलः पुरुषो यद्यपि न करोति किञ्चिदपराधम् । सर्प इवाविश्वास्यो भवति तथाप्यात्मदोषहतः ॥२८॥ १ नास्ति पदमिदं ब० प्रतौ । २ चित्तानुरोधजल-प०। ..
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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