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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ प्रथमोऽधिकारः टीका-वर्तनं वृत्तिः-आत्मनः कुटुम्बस्य वा पोषणम् । तदर्थ कृष्यादिकं कर्म करोति लोकः समुचितधनधान्योऽपि प्रतिवर्ष महती सम्पदमिच्छन् प्रकर्षवतीम् । एवं विरागवार्ता-वृत्तिरस्यां विद्यत इति वार्ता, वैराग्यवृत्तिः वैराग्ये वर्तनम् । तस्यां विरागवार्तायां यो हेतुः कारणं स पुनः पुनश्चिन्त्यः अभ्यसनीयः । स च हेतुः वैराग्यप्रख्यापकानि शास्त्राणि । यानि आलोच्य आलोच्य प्रतिक्षणं परित्यज्य रागादीन् वैराग्यमेवालम्बत इति ॥ १५॥ अर्थ-जिस प्रकार आजीविकाके लिए लोग बार-बार उसी धंधेको करते हैं, इसी प्रकार वैराग्यके कारणका भी बार-बार चिन्तन करना चाहिए। भावार्थ-धन-धान्यसे भरपूर होनेपर भी लोग जिस प्रकार प्रतिवर्ष खूब धनी बननेकी इच्छासे अपने अथवा अपने कुटुम्बके पोषणके लिए बार-बार खेती वगैरहका रोजगार करते हैं । इसी.. प्रकार जिस कारणसे वैराग्यमें प्रवृत्ति हो, उसका बार-बार अभ्यास करना चाहिए। वह कारण वैराग्यका कथन करनेवाले शास्त्र ही हैं, जिनकी आलोचना कर करके प्रतिसमय रागादिकको छोड़कर वैराग्यका ही सहारा लिया जाता है। 'तच्च वैराग्यमविच्छेदेन यथा न त्रुट्यत्यन्तराल एव तथाऽनुष्ठेयम् ' इत्याह- . ___वह वैराग्य बराबर बना रहे, बीचमें ही न छूट जावे, ऐसा प्रयत्न करना चाहिए । यही बात प्रन्यकार बतलाते हैं: दृढ़तामुपैति वैराग्यभावना येन येन भावेन । तस्मिंस्तस्मिन् कार्यः कायमनोवाग्भिरभ्यासः ॥ १६ ॥ टीका-वैराग्यवासना प्रतिदिनं येन येन भावेन जन्मजरामरणशरीरायुत्तरकारणालोचनादिना न विच्छिद्यते, दृढतामेवोपैति, तत्र तत्र अभ्यासः कार्यः कायमनोवाग्भिः । अथवा 'येन येन भावेन ' इति मनःपरिणामेन अत्यर्थ 'निर्वेदसंवेगरूपेण भाव्यमानेन दृढीभवति वैराग्यं तत्र विधेयोऽभ्यास इति ॥ १६ ॥ अर्थ-जिस जिस भावसे वैराग्यभावना दृढ़ताको प्राप्त होती है, मन, वचन, और कायसे उस उसमें अभ्यास करना चाहिए। भावार्थ-जन्म, बुढ़ापा, मरण और शरीर आदि उत्तर कारणोंकी आलोचना करना इत्यादि जिस जिस भावसे वैराग्यभावना प्रतिदिन मजबूत होती जाती है, मनसे, वचनसे, और कायसे उस उस भावका अभ्यास करना चाहिए । अथवा मनके जिस निर्वेद और संवेग परिणामकी भावना करनेसे वैराग्य दृढ़ होता है, उसका अभ्यास करना चाहिए। सुखावबोधग्रन्थरचनार्थं वैराग्यवाचिनः पर्यायशब्दानाचष्टेप्रन्थकी रचना सुखपूर्वक समझमें आनेके लिए वैराग्यके अर्थवाची पर्याय शब्दोंको कहते हैं:१ निवेदरूपेण प०।
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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