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________________ कारिका १२-१३-१४-१५] प्रशमरतिप्रकरणम् पिशुनयति । रागद्वेषोपात्तकर्मोदयप्रसूतायास्तीवादिवेदनार्तेरपहारकारि पुनः पुनरभ्यस्यमानमप्यदुष्टमव अर्थप्रधानं पदमदोषम्, अनुयोज्यम् अनुयोजनीयं वाक्प्रपञ्चेनानेकश इति ॥ १३ ॥ अर्थ-जिस प्रकार पहले सेवन की हुई भी औषधको पीड़ा दूर करनेके लिए फिरसे सेवन करते हैं, उसी प्रकार रागसे उत्पन्न हुई पीडाको दूर करनेवाले उपर्युक्त पदोंका भी अनेक बार प्रयोग करना चाहिए। भावार्थ-जिस औषधपर विश्वास हो जाता है, दुबारा भी उसीका सेवन किया जाता है। उसका सेवन करनेसे प्रतिदिन रोगकी अधिक अधिक शान्ति देखी जाती है । उसी तरह राग-द्वेषसे बाँधे हुए कर्मोंके उदयसे होनेवाली आन्तरिक पीड़ा जिन सारवान् वचनोंसे दूर होती है, उनका बार-बार भी दोहराना लाभदायक ही है। तथा यद्वद्विषघातार्थ मन्त्रपदे न पुनरुक्तदोषोऽस्ति । तद्वद् रागविषघ्नं पुनरुक्तमदुष्टमर्थपदम् ॥ १४ ॥ टीका-वृश्चिकादिदष्टानामपमार्जनं कुर्वन्तो मन्त्रवादिनः तद्विषजनितवेदनाविघातं विधित्सन्तः पुनः पुनस्तान्येव मन्त्रपदानि आवर्तयन्ति । दृष्टश्च प्रतिक्षणं विषविघातः । तद्वद् रागविषघ्नं वैराग्याग्निसन्धुक्षणप्रवणमनेकशोऽभ्यस्यमानं रागद्वेषविषविघातित्वात् न पुनरुक्तदोषमासजतीति ॥ १४ ॥ - अर्थ-जिस प्रकार विषको दूर करनेके लिए मन्त्रका बार-बार उच्चारण करनेमें पुनरुक्त दोष नहीं है, उसी प्रकार रागरूपी विषको घातनेवाले दोषरहित अर्थपदका बार-बार कथन करनेमें भी पुनरुक्त दोष नहीं है। म भावार्थ-जिन लोगोंको साँप विछू आदि काट लेते हैं, उनका विष उतारनेके लिए मन्त्रवादी लोग बार बार मन्त्रके उन्हीं पदोंको दोहराते हैं, और जैसे-जैसे वे मन्त्रको दोहराते जाते हैं, विष उतरता जाता है, अतः दोहराना व्यर्थ नहीं है । इसी प्रकार रागरूपी विषको जलानेको वैराग्यरूपी अग्निको प्रज्वलित करनेमें समर्थ वचनोंके बार-बार अभ्यास करनेमें भी पुनरुक्त दोष नहीं है । क्योंकि उनका निरन्तर चिन्तन आदि करनेसे राग-द्वेषका घात होता है। तथा परमप्युदाहरति अस्मिन्नेवार्थेइसी बातके समर्थन में एक और भी उदाहरण देते हैं: वृत्यर्थं कर्म यथा तदेव लोकः पुनः पुनः कुरुते । एवं विरागवार्ताहेतुरपि पुनः पुनश्चिन्त्यः ॥१५॥ १ नास्ति पदमिदं प० प्रतौ । २ वैराग्यामिक्षणमनेक–प० । ३ रागद्वेषविषा--मु०।
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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