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________________ कारिका ४-५-६] प्रशमरतिप्रकरणम् वगैरह बुद्धिकी ही सम्पदा है। फिर भी जिस प्रकार कोई दीन-हीन मनुष्य देवताको चढ़ाये गये प्रसादके इधर-उधर पड़े हुए कणोंको बीन-बीन कर अपना पेट भरता है, या खेतोंके काट लिए जानेपर जमीनमें गिरे हुए धान्यके कणों (सिला)से अपना निर्वाह करता है, उसी प्रकार मैं भी-पूर्वश्रेष्ठ पुरुषोंने अपनी बुद्धिसे अनेक बार प्रवचनके जिस अर्थका आलोडन किया है और ऐसा करते समय प्रवचनके अर्थके जो कुछ कण इधर-उधर छिटक गये हैं उन्हें खोजनेके लिए सर्वज्ञ-शासनरूपी नगरमें प्रवेश करना चाहता हूँ। अर्थात् जिनशासनके अन्दर घुसकर उसके रहस्योंको निकालना मेरी शक्तिके बाहरकी बात है; किन्तु दूसरोंने उसमें घुसकर जो कुछ सोचा है, उनकी खोजके फलस्वरूप पड़े हुए कुछ ज्ञानके कण शायद मुझे भी मिल जावें, इसी लिए मैं जिनशासनमें प्रवेश करना चाहता हूँ। सारांश यह है कि जिनशासनको समझना बड़ा कठिन है। तामेवोञ्छवृतितामात्मनो दर्शयति कारिकाद्वयेनदो कारिकाओंसे अपनी उसी पूर्व वृत्तिको दर्शाते हैं: बहुभिर्जिनवचनार्णवपारगतैः कविवृषैर्महामतिभिः । पूर्वमनेकाः प्रथिताः प्रशमजननशास्त्रपद्धतयः॥५॥ टीका-'जिनवचनमर्णव इव, पारगमनाशक्यत्वान्मन्दमतिभिः। महामतिभिस्तु बुद्धिविभवप्राप्तैः सुगमपारः' इति दर्शयति । जिनवचनार्णवपारगतैर्बहुभिर्महामतिभिश्चतुर्दशपूर्वविद्भिः शास्त्रप्रतिबद्धकाव्यकरणनिपुणैः सत्कविभिः शब्दार्थदोषरहितकाव्यकारिभिः कविवृषैः कविप्रधानमत्तः पूर्व प्रथमतरमेव अनेकाः बयः प्रशमजननशास्त्रपद्धतयः प्रथिताः प्रकाशिताः । प्रशमो वैराग्यम्, स जन्यते येन शास्त्रेण तत् प्रशमजननशास्त्रम्, तस्य पद्धतयो रचना 'वैराग्यवीथयः' इत्यर्थः । तैमहामतिभिर्या विरचिताः शास्त्रपद्धतयः ॥५॥ " अर्थ-जिन वचनरूप समुद्रके पारको प्राप्त हुए महामति कविवरोंने पहले वैराग्यको उत्पन्न करनेवाले अनेक शास्त्र रचे हैं। भावार्थ-जिनभगवान्के वचन समुद्र के समान हैं; क्योंकि मन्दबुद्धिवाले जीव उनका पार नहीं पा सकते । पर बुद्धिकी सम्पदासे युक्त महामति पुरुष उसे सुगमतासे पार कर सकते हैं । यही बात दर्शाते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि मुझसे पहले चौदह पूर्वके जाननेवाले और शास्त्रके विषयको लेकर काव्य बनानेमें निपुण अनेक श्रेष्ठ कवियोंने वैराग्यको उत्पन्न करनेवाले शास्त्रोंकी रचना की है। द्वितीयकारिका वक्ति–दूसरी कारिकाको कहते हैं:ताभ्यो विसृताः श्रुतवाक्पुलाकिकाः प्रवचनाश्रिताः काश्चित् । पारम्पर्यादुत्सेषिकाः कृपणकेन संहृत्य ॥६॥
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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