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________________ ६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ प्रथमोऽधिकारः भावको अर्थ कहते हैं । कारणके अथवा साध्यके साथ जिसकी व्याप्ति हो उसे हेतु कहते हैं। जिस प्रकार अन्धे मनुष्यों को हाथी के एक एक अङ्गका ज्ञान होता है, उसी प्रकार अनेक धर्मात्मक वस्तुके एक एक धर्मको लेकर जो ज्ञानविशेष होते हैं, उन्हें नय कहते हैं । उनके भेद नैगम, संग्रह वगैरह हैं । इनका विषय उत्तरोत्तर सूक्ष्म होता है। चौदह पूर्वोके अन्तर्गत शब्दप्राभृतमें जिनका लक्षण कहा गया है, उन संस्कृत और प्राकृतके शुद्ध शब्दोंको शब्द कहते हैं । शब्दप्राभृतके आधारपर ही संस्कृत और प्राकृतके व्याकरण बने हैं । अनन्त शब्द प्रत्येकके साथ लगाना चाहिए । इस तरह सर्वज्ञदेवका शासन अनन्त भङ्गोंसे, अनन्त पर्यायोंसे, अनन्त अर्थोंसे, अनन्त हेतुओंसे, अनन्त नयोंसे और अनन्त शब्दों से बड़ा गहन हो गया है । उसमें जो बहुश्रुत नहीं है, जिन्होंने अङ्ग - पूर्वरूप सकल शास्त्रों नहीं किया है, उनका प्रवेश पाना अशक्य ही है । ' यद्यपि ' इति अपेक्षमाण इदमाह तथापि - श्रुतबुद्धिविभवपरिहीणकस्तथाप्यहमशक्तिमविचिन्त्य । द्रमक इवावयवोञ्छकमन्वेष्टुं तत्प्रवेशेप्सुः ॥४॥ " यद्यपि अशक्यप्रवेशं सर्वज्ञशासनपुरमस्मद्विधेन तथापि श्रुतबुद्धिविभवपरिहीणोऽपि अधिगतसकल पूर्वार्थविभवस्तेन परिहीनः परित्यक्तः, तथा बुद्धिविभवपरिहीणकश्चबुद्धेर्विभवः कोष्ठबुद्धित्वं बीजबुद्धित्वं पदानुसारित्वमित्यादि । अहम्' इति आत्मानं निर्दिशति प्रकरणकारः । अंशक्तिमात्मगतामविचिन्त्य अनपेक्ष्य अनादृत्यात्मनोऽ सामर्थ्य सोऽहं समुद्यतः कर्तु दमक इव । द्रमको निःस्वो रङ्कः । स हि देवताबलिसिक्थान्यप्युचित्योच्चित्यं विप्रकीर्णानि पोषमात्मनः करोति - लूनकेदारिक इव ब्रीहिकणान् भुवि निपतितान् उच्चित्य शरीरस्थितिं विधत्ते । तेषां विप्रकीर्णानां संचयनमुञ्छमेव उञ्छकम् । एवमहमपि पूर्वपुरुषसिंहैर्महामतिभिराकृष्यमाणे प्रवचनार्थेऽनेकशो यदवयवजातमाकर्षतां शटितं किञ्चित् तदन्वेष्टुं गवेषयितुं सर्वज्ञशासनपुरं प्रवेष्टुमिच्छामि । परिशटितावयवोच्चयनमात्रकेण सर्वज्ञशासनपुरप्रवेशमाप्तुमिच्छामीत्यर्थः । आर्याद्वय उपनयो यथा - यद्वद् रत्नाढ्यपुरमन्तःप्रवेष्टुमविभवैः सकष्टं तद्वत् सर्वज्ञशासनमवबोद्धुं सकष्टं वर्तत इत्यर्थः ॥ ४ ॥ अर्थ - शास्त्राभ्यास और बुद्धिकी सम्पदासे बिलकुल हीन होनेपर भी मैं अपनी असमर्थताको न विचार कर, जैसे कोई रङ्क मनुष्य धान्यके कर्णोको बीननेके लिए नगरमें प्रवेश करना चाहता है, वैसे ही प्रवचन के कणों को खोजने के लिए मैं सर्वज्ञ- शासनरूपी नगरमें प्रवेश करना चाहता हूँ । भावार्थ — मैंने न तो समस्त शास्त्रोंका ही पूरा पूरा अभ्यास किया है, और न मेरी बुद्धि ही अलौकिक है। अतः मेरे पास न तो शास्त्रकी सम्पदा है और न कोष्ठबुद्धि, बीजबुद्धि, पदानुसारी १ यद्धपीत्यारभ्य 'अस्मद्विधेन' पर्यन्तः पाठो नास्ति मु० प्रतौ । २ श्रुतविभव – प० । ३ – नुचारि - प० । ४ अहमश—प० । ५--म्यप्युचित्य वि - प० । ६' आर्याद्वयस्य यत्यारस्य ' वर्तते इत्यर्थः ' पर्यन्तः पाठो नास्ति प प्रतौ ।
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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