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________________ प्रशमरतिप्रकरणम् या पुण्यपापयोरग्रहणे वाक्कायमानसी वृत्तिः । सुसमाहितो हितः संवरो वरददेशितश्चिन्त्यः || १५८ ॥ टीका – पुण्यंकर्म सातादि । पापं ज्ञानावरणादि । तयोः पुण्यपापथोरग्रहणेऽनुपादाने' । वाक्कायमानसी वृत्तिर्या व्यापार इत्यर्थः । अग्रहणं च संवृतास्त्रवद्वारस्य भवति, न पुनः पुण्यमादत्ते न पापम् । सुसमाहितः सुष्ठु समाहितः आत्मन्यारोपितः, हितश्च आयत्यां तदायत्ते च संवर आस्रवनिरोधलक्षणः । वरदास्तीर्थकृतः । ईप्सितार्थप्रदानाद्वरदाः । मोक्षार्थश्वेप्सितः । स चिन्तनीयो भावनीय इत्यर्थः ॥ १५८ ॥ कारिका १५७ - १५८-१५९] १०९ अर्थ- - मन, वचन और कायके जिस व्यापारसे न तो पुण्यकर्मका आस्रव होता है और न पाप कर्मका आस्रव होता है, आत्मामें अच्छी तरह से धारण किये गये उस व्यापारको तीर्थंकर भगवान् के द्वारा उपदिष्ट हितकारक संवर कहते हैं । उसका चिन्तन करना चाहिए । भावार्थ - कर्मों के आसव के रोकने को संवर कहते हैं । वह संवर ही जीवका बड़ा हितकारी है । इच्छित वरको देनेवाले तीर्थंकरोंने उसका उपदेश दिया है । उसकी भावना करनी चाहिए । 1 निजराभावनामधिकृत्याह - निर्जराभावनाको कहते हैं: यद्वद्विशेषणादुपचितोऽपि यत्नेन जीर्यते दोषः । तद्वत्कर्मोपचितं निर्जरयति संवृतस्तपसा ॥ १५९ ॥ टीका–कथं पुनः संवृतात्मनः कर्मनिर्जरणमिति दर्शयति-निरुद्धेष्वास्त्रवद्वारेषु संवृतात्मनोऽपूर्व कर्मप्रवेशो नास्ति, पूर्वोपात्तस्य च कर्मणः प्रतिक्षणं क्षयस्तपस्यतो भवति । थोपचितस्याजीर्णस्य आमविदग्धविष्टब्धरसशेषलक्षणस्य आहारनिरोधे सति विशोषणाद्यः प्रतिदिवसं क्षयो भवति प्रयत्नेन दोषाणामामादीनाम् तद्वत्कर्मापि ज्ञानावरणादि चितं संसृतौ भ्रमता चतुर्थकाष्टमदशमद्वादशादिभिस्तपोविशेषैनरसीकरोति । नीरसीकृतं च निरनुभाव्यं निष्पीडितकुसुंभवत् परिशटत्यात्म प्रदेशेभ्य इति ॥ १५९ ॥ अर्थ-जैसे बढ़ा हुआ भी विकार प्रयत्न करनेसे लंघनसे नष्ट होजाता है, वैसे ही संवरसे युक्त मनुष्य इकट्ठे हुए कर्मको तपस्यासे क्षीण कर डालता है । भावार्थ-संवरसे युक्त मनुष्य किस प्रकार कमाकी निर्जरा करता है यह बतलाते हैं। आस्रवके द्वारों के बन्द होजानेपर नये कर्मोंका तो प्रवेश ही नहीं होता । और पहले बाँधे हुए कर्म तपस्यासे प्रतिक्षण नष्ट होते रहते हैं । जिस प्रकार बढ़ा हुआ भी अजीर्ण खाना बन्द करके लंघन करनेसे प्रतिदिन क्षय होता है, उसी प्रकार संसार में भ्रमण करते हुए जीवने जो ज्ञानावरणादि कर्म बाँध रखे हैं, चतुर्थक, १- पादानेन - फ० ब० २ - विशेषेणाया - फ० ब० । ३- दोषान्तमादी नाम-फ० ब० ।
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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